इतनी दुःख भरी ख़बरों के बीच भारत के एक सरकारी संस्थान से अच्छी खबर आयी है। ध्यान रहे देश का एक बड़ा मध्यवर्गीय सुविधाभोगी तबका सरकारी संस्थानों को औने-पौने दामों पर गुजराती सेठों को बेचने की वकालत करने लगा है।
खैर, खबर यह है कि Defence Research and Development Organisation (DRDO) और देश की एक दवा कंपनी – Dr. Reddy’s के संयुक्त प्रयासों से 2DG नाम की एक दवा नाम कोविड के गंभीर मरीज़ों पर इस्तेमाल की मंज़ूरी मिली है।
यह संस्थान DRDO भी AIIMS की तरह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी की ही देन है।
वैसे डॉक्टर्स और Biomedical वैज्ञानिकों के लिए 2DG कोई नया नाम नहीं है। इसका पूरा नाम 2-Deoxy-D-glucose है जिसका अविष्कार ५० सालों से भी अधिक समय पहले हो चुका है।
यह एक artificial compound है जो मूलतः प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले Glucose (जो शरीर के लिए बेहद जरुरी रसायन है) के structural analog के तौर पर diagnostic medicine में प्रयोग किया जाता है, खासकर कैंसर की डायग्नोसिस में PET के दौरान इसका उपयोग खूब होता है। 2DG के एंटी-कैंसर कंपाउंड के तौर पर भी दुनिया भर में खूब ट्रायल हो रहे हैं। 2DG को लेकर कैंसर रिसर्चर्स में खूब उत्साह रहा है क्योंकि अपनी बनावट में ग्लूकोस (जो हर जीवित कोशिका के लिए बेहद जरुरी होता है) जैसा होने के कारण यह तेजी से बढ़ने वाली कैंसर कोशिकाओं में घुस जाता है और उनके लिए एनर्जी उपलब्ध कराने में बाधा उत्पन्न करता है जिससे कैंसर सेल्स मरने लगती हैं।
2DG के एंटी-वायरल गुण भी काफी समय से मालूम हैं। लगभग ६० के दशक में ही कुछ वैज्ञानिकों ने इसे इन्फ्लुएंजा (फ्लू) वायरस पर इसके अध्ययन किये थे। बाद में ८० और ९० के दशक में Herpes virus के इन्फेक्शन में 2DG के काफी परीक्षण किये गए।
DRDO ने 2DG के एंटी-वायरल गुणों का लाभ लेते हुए बहुत चतुराई से इसका कोरोना के मरीज़ों पर क्लीनिकल ट्रायल किये जिसमे अच्छे रिजल्ट मिले हैं।इस क्लीनिकल ट्रायल के बारे में DRDO/Dr Reddy’s की तरफ से कोई peer reviewed study (वैज्ञानिक अध्ययन) मुझे अभी कहीं मिल नहीं सकी है इसलिए इस दावे पर पूरे विश्वास से तो अभी नहीं कुछ कहा जा सकता है पर यह आशा जरूर की जानी चाहिए कि अगर यह कारगर चिकित्सा है तो ऑक्सीजन और अस्पताल में बेड के अभाव में मारे जा रहे मासूम लोगों के लिए बेहद राहत की बात होगी।
सबसे अच्छी बात है कि 2DG को ग्लूकोस की तरह घोल कर पिया जा सकता है।अगर आपने या आपके किसी जानने वाले ने कभी किसी वजह से या किसी तरह के कैंसर की जांच के लिए PET करवाया है तो पूरी संभावना है इसे आपने पिया ही होगा।
पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जेनेरिक केमिकल होने के कारण किसी कंपनी का इस केमिकल पर पेटेंट नहीं हो सकता है इसलिए इसे कोई भी अपने यहाँ बना कर बगैर पेटेंट कानूनों का उल्लंघन किये हुए सस्ते में बेच सकता है। भारत जैसे देश के लिए यह अच्छी बात है।