“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल “ का उद्घोष करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का आज जन्मदिन है. वे आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता थे, उनसे पहले हिन्दी भाषा नहीं बोलियों में बंटी थी. हिन्दी में निज भाषा और गौरव की पताका उठाने वाले वे पहले व्यक्ति थे. हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने न सिर्फ़ हिन्दी की सभी विधाओं में (कविता,कहानी, नाटक, रिपोतार्ज, नौटंकी ,यात्रा वृतांत ) लिखा, बल्कि सभी वर्गों के लिए पत्रिकाएं भी छापी.

साहित्य के लिए उन्होंने “हरिश्चंद्र मैगज़ीन” निकाली. कविता के लिए उन्होंने “कविवचवन सुधा” छापी. महिलाओं के लिए “हरिश्चंद्र चंद्रिका” निकाली. बच्चों के लिए “बालाबोधनी” का प्रकाशन किया. भारतेन्दु का रचना संसार जितना विराट है उतना ही क्रान्तिकारी और बहुआयामी. उन्होंने अपने जीवन में वह सब कुछ कर डाला जिसे करने की सामर्थ्य व्यक्ति क्या संस्थाओं में भी आज नहीं दीखता. भारतेन्दु से अपना नज़दीकी मामला है. उनकी बनाई संस्था द्वारा संचालित स्कूल में पढ़ा हूँ. और मेरी पहली किताब “भारतेन्दु सम्रग” 1983 में आई. शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हो, जिसने अपने युग की चेतना को इतनी सशक्त वाणी दी हो. वे अपने समय की बेमिसाल अभिव्यक्ति थे.

वह सिर्फ़ शानदार और जानदार रचनाकार नहीं था, वह गुणियों का सेवक था. चतुरों का चाकर था. कवियों का मित्र था. सीधे के लिए सीधा और बॉंको के लिए महाबॉंका था. वह चाह और प्रवाह से दूर था. वह प्रेम का दिवाना. रसिकों का रसिक और राधारानी का गुलाम था. शुद्ध बनारसी था, मल्लिका नाम की तवायफ से प्रेम करता था. जिसे सरेआम स्वीकारता था. हास्य व्यंग्य उनके खून में था. देखिए एक सौ चालीस बरस पहले उन्होंने अपने नाटक ‘प्रेमयोगिनी’ में बनारस का क्या बेलौस चित्र खींचा है.

देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी ।।
आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी रांड़ खानगी खासी ।।
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी ।।
आप काम कुछ कभी करैं नहिं कोरे रहैं उपासी।
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी ।।
अमीर सब झूठे और निंदक करें घात विश्वासी।
सिपारसी डरपुकने सिट्टई बोलैं बात अकासी ।।
मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी ।।
कुत्ते भूँकत काटन दौड़ैं सड़क साँड़ सों नासी।
दौड़ैं बंदर बने मुछंदर कूदैं चढ़े अगासी ।।
घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचैं दै गल फाँसी।
करैं घाटिया बस्तर-मोचन दे देके सब झाँसी ।।
राह चलत भिखमंगे नोचैं बात करैं दाता सी।
मंदिर बीच भँड़ेरिया नोचैं करैं धरम की गाँसी ।।
सौदा लेत दलालो नोचैं देकर लासालासी।
माल लिये पर दुकनदार नोचैं कपड़ा दे रासी ।।
चोरी भए पर पूलिस नोचैं हाथ गले बिच ढांसी।
गए कचहरी अमला नोचैं मोचि बनावैं घासी ।।
फिरैं उचक्का दे दे धक्का लूटैं माल मवासी।
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी ।।
साहेब के घर दौड़े जावैं चंदा देहि निकासी।
चढ़ैं बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होंय उदासी ।।
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी ।।
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरहिं कागाबासी।
बापके तिथि दिन बाम्हन आगे धरैं सड़ा औ बासी ।।
करि बेवहार साक बांधैं बस पूरी दौलत दासी।
घालि रुपैया काढ़ि दिवाला माल डेकारैं ठांसी ।।
काम कथा अमृत सी पीयैं समुझैं ताहि विलासी।
रामनाम मुंह से नहिं निकसै सुनतहि आवै खांसी ।।
देखी तुमरी कासी भैया, देखी तुमरी कासी।

-प्रेमयोगिनी से.

मुकेश पाण्डेय

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