2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में लोकसभा की 40 सीटों में से 22 सीटें भाजपा और एनडीए को कुल 31 सीटें देने वाले बिहार ने उसके ठीक एक साल बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में अपने जनमत के द्वारा लालू यादव की आरजेडी को बड़े भाई और नीतीश कुमार के जेडीयू को छोटे भाई के तौर पर चुना।
2015 में जब नीतीश और लालू (आरजेडी-जेडीयू) की सरकार बनी तो लगाने वालों ने बिहार की राजनीति में इस संयोग को ओबीसी राजनीति के एक नए और मजबूत युग की शुरुआत का नारा लगाया। बिहार के मतदाताओं से तीसरे नंबर का आशीर्वाद पायी भाजपा को हर हाल में सत्ता से रोकने के सपने वाले तमाम अन्य दल और लालू यादव की घोषित राजनीति के वोट बैंक मुसलमान भी इस नए युग की शुरुआत में बरोबर शामिल थे।

2015 विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद स्थित कुछ यूं बनी कि बिहार के मतदाताओं ने जनमत की दुल्हन के दूल्हे के तौर पर चुना लालू प्रसाद की आरजेडी को। नीतीश कुमार की जेडीयू को जनमत ने चुना सहबाला (दूल्हे का छोटा भाई) लेकिन मुख्यमंत्री बन के जनमत की दुल्हन का दूल्हा बने नीतीश। फिर नियति और समय का चक्र यूं घूमा कि साल भर के अंदर जनमत की दुल्हन एनडीए के साथ फरार हो गयी और चार साल जेडीयू-एनडीए की सत्ता रहने के बाद बिहार एक बार फिर चुनाव में है।
इस बीच 2019 के लोकसभा चुनावों को भी एक साल हो चुके हैं 2014 की तर्ज़ पर और बिहार ने इस दफा एनडीए-भाजपा को 40 में से 39 सीटें दी हुई हैं।
इस सत्य के साथ बिहार विधानसभा चुनाव को देखना रोचक होगा क्योंकि इस चुनाव में भाजपा के तेवर कड़े और रणनीति एक दम अलग दिख रही है।
“बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में भाजपा सत्ता में रही पार्टी से ज्यादा पिछले चुनाव में तीसरे स्थान पर रही पार्टी के तौर पर लड़ने के तेवर और तैयारी में दिख रही है”
2015 के चुनाव में बिहार के जिस जनमत ने एक त्रिशंकु और भटका हुआ फैसला दिया था इस चुनाव में भाजपा बिहार के मतदाताओं के सामने विकल्पों के भटकाव को परोस चुकी है।नीतीश कुमार एनडीए के हिस्सेदार और मुख्यमंत्री चेहरा होकर भी छोटे भाई की हैसियत में हैं।नीतीश को छोटा भाई बनाने के लिए एनडीए से बाहर रहते हुए चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी जेडीयू के सामने मैदान में है।
रामविलास पासवान जी की दुखद मृत्यु के बाद चिराग के और भी मजबूत होने के मजबूत आधार हैं।गठबंधन रहने, टूटने। सीटों के बंटवारे। नीतीश साथ हों या नहीं, मुख्यमंत्री फेस हों या नहीं… इन और इन जैसे तमाम विषयों पर भाजपा ने सबसे पहले खुद का भला देखा है। यह इसका नया तेवर है जो विधानसभा चुनावों में इसे नयी भाजपा बनाता है। शिवसेना से अकाली दल के मामलों में भी संकेत ऐसे ही मिलते हैं।
इस तरह विधानसभा चुनाव 2020 में बिहार के सम्मानित मतदाताओं के पास ‘भटकाव के जरिये एक लक्ष्य तक पहुंचने’ के विकल्प ही विकल्प हैं। उसके सामने भाजपा है, आरजेडी है, जेडीयू है, लोक जनशक्ति है, माझी हैं, पुष्मम प्रिया नामक केजरीवाल हैं। कांग्रेस हालांकि जिक्र के योग्य नहीं लेकिन एक नाम यह भी है।
इस तरह 2014 लोकसभा चुनाव में जाति.. क्षेत्र.. आदि संकीर्णताओं से दूर हट कर बड़ा बहुमत एनडीए-भाजपा को देने के बाद साल भर में विधानसभा चुनाव में उसी जाति.. क्षेत्र आदि की परंपरागत शैली की तरफ लौटते हुये लालू प्रसाद यादव को नंबर एक बनाने वाले जनमत के सामने बीजेपी खुद को तीसरे से पहले नंबर लाने के तेवर के साथ चुनाव में जाती हुई दिख रही है।

भाजपा-एनडीए का यह उत्साह और इसके आधार के लिए लोकसभा चुनाव 2019 में मिला जनमत देखना पर्याप्त है जिसने 40 में से 39 सीटें भाजपा-एनडीए को दिया।
साफ है जाति, क्षेत्र आदि जैसी संकीर्ण राजनीति से देश के मतदाताओं को 2014 के परिणामों से ही बाहर लाने की सतत और सफल रणनीति में लगी नयी भाजपा बिहार में अपने इसी प्रयोग को लेकर मैदान में है।
नयी भाजपा ने हर भटकाव को पसंद-नापसन्द करते हुए भी कैसे किसी एक लक्ष्य की प्रप्ति की जा सकती है… इसकी बिसात बिछा दिया है बिहार में जिसका परिणाम देखना रोचक होगा।
भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव खुद को तीसरे नंबर से पहले नंबर पर लाने के भाव से लड़ रही है जो शुभ है।
और अंत में : बिहार में भाजपा को सत्ता का घमंड नहीं है क्योंकि सत्ता उसे दी नहीं गयी थी.. बल्कि मिली थी। इस बार वह सत्ता लेने के तेवर में नयी भाजपा के तौर पर मतदाता के समक्ष है।