वामपंथ आयातित और दुराग्रही विचारों पर टिका था, जो अब पूरी दुनिया में अमान्य हो चुका है । अपने विपक्षियों पर अधिनायकवाद के झूठे आरोपों को चस्पा करते हुए स्वयं की स्वयमेव प्रशंसा करना इसकी पुरानी आदत रही है। भारतीय संस्कृति और भारतीय मनोबोध को नकारने का उद्देश्य लेकर इसने अपनी कई पीढ़ियों की कुबुद्धि का उपयोग किया लेकिन विफल रहा। केवल विरोध के लिए विरोध करना और सच को नकारना ही इसका वैचारिक अधिष्ठान है। यही कारण है कि खरी, सच्ची और तथ्यात्मक बातें भी आज तक इसमें परिवर्तन की सम्भावना उत्पन्न नहीं कर पाई हैं। वामपंथ एक ऐसा गंभीर रोग है, जो महान संस्कृतियों को भी नष्ट कर देता है। इतिहास गवाह है कि देश के जिस भी हिस्से में वामपंथ मजबूत हुआ, इसने उस हिस्से को कमजोर किया है। पश्चिम बंगाल इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिस बंगाल ने पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति की छाप छोड़ी, एक से बढ़कर एक संत, महात्मा और क्रांतिकारी दिए, उसे वामपंथ ने पूरी तरह बर्बाद कर दिया। लेकिन वामपंथ को आईना दिखाने वाला एक बड़ा चेहरा इसी वामपंथी खेमे से आगे आया, वह हैं डॉ. रामविलास शर्मा। उन्होंने जब भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा के बारे में फैलाए गए झूठ से पर्दा उठाया तथा इतिहास से संबंधित प्रामाणिक प्रश्न उद्घाटित किये तो वामपंथियों को यह बात स्वीकार नहीं हुई। असहमति रखने वालों का संहार करने की अपनी चिर परिचित आदत के अनुसार डॉ. शर्मा द्वारा दिए गए तर्कों को स्वीकार करने या वामपंथ के भीतर उन पर विमर्श करने के बजाए वामपंथियों ने उन्हें ही खारिज कर दिया। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए। यहां तक कि उन्हें हिन्दू पुनरुत्थान का समर्थक आलोचक तक कहा। हालांकि रामविलास शर्मा हमेशा यही कहते रहे कि अगर उन्होंने कुछ भी गलत कहा हो तो उसका तर्कपूर्ण ढंग से खंडन किया जाए। डॉ. शर्मा भारतीय ज्ञान परम्परा की उस श्रृंखला के प्रतीक बन कर हमारे सामने उभरते हैं , जो ज्ञान विस्तार के लिए संवाद का आवाहन करती है, वामपंथी गिरोह की तरह फतवेबाजी नहीं करती ।

कथित वामपंथी बुद्धिजीवी भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरुष गोस्वामी तुलसीदास को हमेशा खारिज करते रहे, रामविलास शर्मा ने उन्हें मध्यकालीन भारत का महान कवि बताया। यह डॉ. शर्मा ही थे, जिन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए तुलसी साहित्य के साथ छेड़छाड़ की। तुलसीदास पर आरोप वही लगाते हैं, जिन्होंने उनके साहित्य को पूरा नहीं पढ़ा। इसी तरह, उन्होंने वेद-वेदांत, इतिहास, भारतीय संस्कृति और भारतीय ज्ञान परंपरा पर अपने तथ्यपूर्ण लेखों से वामपंथियों को मुंह बंद किया इसलिए वामपंथी उनसे घृणा करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम रामविलास जी के विचारों को न सिर्फ पढ़ें बल्कि स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय अकादमी जगत के वैचारिक अधिनायकवाद से लड़ने की शक्ति भी प्राप्त करें। साथ ही वामपंथी गिरोह की उस कुत्सित मनोवृत्ति को भी उद्घाटित करें, जिसनें हमारे भारतीय ज्ञानधारा के मनीषियों का अपमान किया, उनसे घृणा करने के लिए संस्थानों और समितियों का निर्माण किया ।