क्षेत्रीय पार्टियों को इस लिहाज से खुशकिस्मत माना जा सकता है कि उनके यहां ‘अध्यक्ष’ का बहुत झगड़ा नहीं होता। जिसकी पार्टी, वही अध्यक्ष। पार्टी भी वही बनाता है, जिसका अपना वोट बैंक होता है। पार्टी के दूसरे नेताओं को पता होता है कि अगर हम अध्यक्ष बन भी गए तो हमारे साथ वोट किसका होगा? क्षेत्रीय पार्टियों में नेतृत्व का झगड़ा अमूमन परिवार में ही होता है, लेकिन तब जब राजनीतिक विरासत संभालने का मौका आता है। यूपी में मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत के लिए उनके बेटे और भाई के बीच टकराव हुआ। हरियाणा में चौधरी देवीलाल का परिवार भी इसी मुद्दे पर बंट गया। महाराष्ट्र में शरद पवार के परिवार में भी खींचतान चल ही रही है। तमिलनाडु में भी जयललिता के बाद उनकी करीबी शशिकला और पार्टी के दूसरे नेताओं के बीच लड़ाई देखी गई। कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा के रहते हुए ही उनकी राजनीतिक विरासत के मालिक उनके बेटे कुमार स्वामी मान लिए गए हैं।
तमिलनाडु में डीएमके चीफ करुणानिधि के बाद उनके बेटे एमके स्टालिन को को लेकर परिवार में भी ज्यादा विवाद नहीं हुआ। पंजाब के अकाली दल में भी यही स्थिति रही। बिहार में राम विलास पासवान के बेटे ने भी पार्टी की बागडोर संभाल ली। लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों की स्थिति बिलकुल अलग होती है। उन्हें अलग-अलग राज्यों और जातियों के बीच भी समन्वय बनाना पड़ता है। सबसे बड़ी जरूरत तो वहां उसे एक ऐसे चेहरे की होती है, जिसे वह चुनाव के मौके पर प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर सके। कई मौकों पर ‘रबर स्टैंप’ अध्यक्ष तो चल जाता है, लेकिन प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का करिश्माई होना बहुत जरूरी होता है।
परिवर्तन का दौर
राष्ट्रीय दलों की इस मजबूरी को मार्केटिंग के फंडे से समझना ज्यादा आसान होगा। बड़े ब्रैंड वैल्यू वाली कंपनियां अच्छा प्रॉडक्ट तैयार करने के लिए जानी जाती हैं। उनके पास बड़े-बड़े शोरूम भी होते हैं, लेकिन शोरूम तक ग्राहकों को लाने के लिए उन्हें किसी न किसी मॉडल की जरूरत पड़ती है। कई बार ऐसा भी देखा गया कि प्रॉडक्ट के बेहतरीन होने के बावजूद वह इसलिए फेल हो गया कि उसकी सही मार्केटिंग नहीं हो पाई। सियासत भी मार्केटिंग के फंडे से चलती है। 1977 वह साल था, जब कांग्रेस पहली बार सत्ता से बाहर गई थी, और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था। वजह क्या थी? विपक्ष को जयप्रकाश नारायण जैसा एक ऐसा करिश्माई चेहरा मिल गया था, जिसने आजाद हिंदुस्तान में ‘दूसरी आजादी’ की कहानी लिख दी।
लोगों ने यह नहीं देखा कि जनता पार्टी का अध्यक्ष कौन है या जनता पार्टी की ओर से पीएम का उम्मीदवार कौन है? जेपी जनता पार्टी के पर्याय बन गए थे। इसके बाद नब्बे का दशक आता है। लोगों को वीपी सिंह में करिश्मे की उम्मीद दिखने लगती है। नारा बनता है- ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’ वीपी के जरिए अलग-अलग राज्यों के क्षत्रपों के गठजोड़ से तैयार जनता दल सत्ता में आ जाता है। चंद्रशेखर, देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल भी प्रधानमंत्री बने, लेकिन करिश्माई व्यक्तित्व के सहारे नहीं, बल्कि जोड़ तोड़ की तात्कालिक व्यवस्था के जरिए। यही वजह थी कि इनके कार्यकाल ने साल भी पूरे नहीं किए।
1980 में बनी बीजेपी राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन के जरिए आती है। पहले 13 दिन, फिर 13 महीने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी पांच साल सरकार चलाने में कामयाब होती है और उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति में सबसे बड़े कद और करिश्माई चेहरे वाले नेता बन जाते हैं। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस एक तरह से ‘एडहॉक’ व्यवस्था पर चल रही होती है। गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी, जिसे थर्ड फ्रंट कहा जाता रहा है, उसके पास भी अटल से बड़ा कोई चेहरा नहीं था। सो बीजेपी के लिए यह फिक्र करने की जरूरत नहीं थी कि पार्टी अध्यक्ष कौन हो। बंगारू लक्ष्मण से लेकर जना कृष्णमूर्ति और वेंकैया नायडू तक अध्यक्ष बनाए जाते रहे।
मोदी युग और कांग्रेस
2004 में शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ चुनाव में उतरी अटलजी की सरकार सत्ता में वापसी नहीं कर पाती। वजह? तब तक सोनिया गांधी बतौर अध्यक्ष कांग्रेस को संभाल चुकी होती हैं। यह धारणा होती है कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर वही प्रधानमंत्री होंगी। प्रधानमंत्री बनने की नौबत आई, तो वे नहीं बनीं, लेकिन लगातार दो चुनाव कांग्रेस जीतती गई। पहले चुनाव में भले मनमोहन चेहरा न रहे हों, लेकिन दूसरे चुनाव में वे लालकृष्ण आडवाणी पर भारी पड़े ही। उनकी सरकार के कई फैसले ऐसे थे, जिन्होंने बीजेपी के ‘मजबूर प्रधानमंत्री बनाम मजबूत प्रधानमंत्री’ के नारे को फेल कर दिया। बीजेपी अध्यक्ष बदलती रही।
आडवाणी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और एक बार फिर राजनाथ सिंह पर दांव लगाया। अंत में यह तय पाया कि कामयाबी हासिल करने के लिए किसी करिश्माई चेहरे को आगे करना ही होगा। यह खोज नरेंद्र मोदी पर आकर खत्म होती है। नरेंद्र मोदी वह चेहरा बनते हैं, जो लोकप्रियता के शिखर पर खड़े दिखाई देते हैं। पार्टी लगातार न केवल दो लोकसभा चुनाव जीतती है बल्कि अलग-अलग राज्यों में भी मोदी के नाम पर जीत दर्ज कराती चली आ रही है। यहीं से कांग्रेस का संकट खड़ा होता है। पार्टी की सारी जद्दोजहद राहुल गांधी को स्थापित करने को लेकर है। सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनना होता तो वे 2004 में ही बन गई होतीं। राहुल के लिए मुश्किल की घड़ी यह है कि उनका मुकाबला नरेंद्र मोदी से है। कद की लड़ाई में मोदी से वे मात खा जा रहे हैं। गांधी परिवार से हटकर भी देखा जाए तो कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं दिखता। यही बीजेपी के लिए इस वक्त खुशकिस्मती और कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब है।