धरती का तृण तृण प्यासा है आज तुम्हारी प्यास में
सूर्य चंद्र अब तक जीवित हैं एक तुम्हारी आस में

शीतल जल के कोमल उर पर
नलिनी पति का बास रे
लोल , लोल चंचल लहरों की
फिर क्यों ऊर्ध्व उसाँस रे

पुलिनों से टकरा कर कण कण बिखर रही है त्रास में
धरती का तृणा तृष्णा प्यासा है आज तुम्हारी आस में

जीवन तरु अब सूख रहा है
यह दुर्दिन की घात है
पर तेरी मुस्कान हमेशा
मेरा पुण्य प्रभात है

ढूंढ रही बावली कोकिला जीवन आज विनाश में
धरती का तृण तृण प्यासा है आज तुम्हारी आस में

मुकेश पाण्डेय

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