कभी देश में नक्सल आन्दोलन का जनक रहा बंगाल का नक्सलबाड़ी गांव समय के साथ कैसे खूनी लाल से भद्र केसरिया हो गया यह घटना वामपंथ के खूनी और आतंकी चरित्र का उसके कथित कोख यानी नक्सलबाड़ी में ही अंतिम संस्कार की कहानी कहती है।

उत्तर बंगाल के सिलीगुड़ी से 25 किलोमीटर दूर नक्सलबाड़ी में इस बदलाव की बयार 2 मई को विधानसभा चुनाव परिणाम के रूप में आ चुकी है।

माटीगाड़ा नक्सलबाड़ी विधानसभा सीट पर भाजपा के 38 साल के युवा आनंदमॉय बर्मन 70838 मतों के भारी अंतर से चुनाव जीत चुके हैं। उन्हें कुल 139785 वोट मिले। दूसरे स्थान पर रहे तृणमूल के रंजन सुंदास को मात्र 68933 मत मिले। इस सीट से कांग्रेस के सिटिंग विधायक और उम्मीदवार शंकर मालाकार तीसरे स्थान पर रहे। रोचक है इस सीट पर एक मात्र वामपंथी उम्मीदवार हरीश चंद्र बर्मन का प्रदर्शन। बर्मन 1274 मत पाकर छठें स्थान पर आए और उनकी जमानत जप्त हुई। इस सीट पर वामपंथी उम्मीदवार को नोटा (3962 वोट) से भी कम मत हासिल हुए।

हालांकि, इस विधानसभा के चप्पे-चप्पे पर गरीबी अभी भी दिखाई देती है, लेकिन नक्सली आंदोलन के उस दौर के मुकाबले परिवर्तन भी दिखाई पड़ता है। नक्सल आंदोलन से जुड़े लोग इस हालात के लिए लेफ्ट की विचारधारा में बदलाव और टीएमसी की नीतियों को जिम्मेदार मान रहे हैं। आज यहां बहुत ही कम जगहों पर ही वामपंथ की मौजूदगी दिखाई पड़ती है, जबकि दक्षिणपंथ की दस्तक कदम-कदम पर सुनाई पड़ती है।

बंगाल के नक्सलबाड़ी को कभी मशहूर माओवादी और नक्सल मूवमेंट के अगुवा कानू सान्याल के लिए ही जाना जाता था। 1960 के दशक में उनके साथ काम कर चुकीं तबकी नक्सलाइट रहीं शांति मुंडा के अनुसार इसके लिए लेफ्ट जिम्मेदार है। अब उनकी कोई विचारधारा नहीं है। वो समझते हैं कि पैसा ही सबकुछ है। इस जमीन के लिए हमारी पूरी पीढ़ी ने संघर्ष किया। लेकिन सच्चाई ये है कि आज की हमारी अगली पीढ़ी या तो जमीन बेचने के लिए मजबूर है या लालच में जमीन बेच रही है। यहां तक कि मैंने भी अपना घर बनाने के लिए अपनी तीन कट्ठा जमीन बेची है।’ उनकी शिकायत है कि पानी की किल्लत के चलते यहां खेती करना बहुत ही मुश्किल हो चुका है। लाचार होकर लोग शहरों में छोटे-मोटे काम की तलाश में जा रहे हैं।

जिस नक्सलबाड़ी के खाद पानी से 34 वर्षों तक पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने शासन किया वह लाल से भगवा एक दिन में नहीं हुआ है। यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है, जिसने इस इलाके में बहुत कड़ी मेहनत की है जिसका परिणाम आज भाजपा को मिला है। ममता बनर्जी के कथित कुशासन को भी यहां भाजपा के उभरने का कारण माना गया है। इस विधानसभा चुनावों में तृणमूल सत्ता में जरूर वापस लौटी है लेकिन चुनाव से पहले और परिणामों के बाद के अराजक हिंसक और बंगाली भद्रलोक के अवधारणा के मुंह पर मानव हत्याओं, हिंसा की कालिख पोतने वाली ममता बनर्जी और उनकी घृणा आधारित राजनीति लेफ्ट के बराबर जिम्मेदार है। जिस नीचाई तक पहुंचने में वामपंथ को बंगाल में 34 साल लगे तृणमूल ने वह नीचाई मात्र 10 सालों में हासिल कर लिया।

बंगाल में हिमालय की तराई का नक्सबाड़ी इलाका पांच दशक से भी पहले पूरे देश के लोगों की नजर में आया था। नेपाल से सटे इस इलाके में 1967 में लोगों ने एक विद्रोही आंदोलन शुरू कर दिया था, जो कुछ गांव वालों पर हुई पुलिस फायरिंग की वजह से हुआ था। इस फायरिंग में दो बच्चों समेत 11 गांव वाले मारे गए थे, जिसके बाद नक्सलबाड़ी के खांटी देशी जनांदोलन का अपहरण किया वामपंथ के हिंसक अराजक और आतंकी गुर्गों द्वारा और इस तरह माओवादी उग्रवाद ने देश के कई इलाकों में पांव फैला दिया। इसकी वजह से हजारों लोगों की जान जा चुकी है। तब इसकी अगुवाई कानू सान्याल ने की थी, जो बाद में मुख्यधारा में लौट आए थे। लेकिन, आज हकीकत ये है कि अपनी जन्म स्थली से नक्सलवाद तो खत्म हो चुका है पर देश के कुछ इलाकों में इसके नाम पर जमकर उगाही और निर्दोषों के कत्ल करने करने का खूनी खेल यूं ही चल रहा है।

आज माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी से सटे आसपास के इलाकों में भी जमीन का रंग खूनी लाल से भद्र भगवा हो चला है।दार्जिलिंग जिले के सिलीगुड़ी विधानसभा की बात करें तो कुल दस उम्मीदवार मैदान में थे। सिलीगुड़ी से विजयी हुए भाजपा के शंकर घोष, द्वितीय रहे तृणमूल के ओम प्रकाश मिश्रा और तृतीय रहे माकपा के अशोक भंट्टाचार्य को छोड़कर बांकी सातों उम्मीदवार से अधिक वोट नोटा को मिला है। सिलीगुड़ी विधानसभा में कुल 1 लाख 78 हजार 650 मतदाताओं ने मतदान किया। जिसका 1.16 प्रतिशत अर्थात 2074 मतदाताओं ने दसों उम्मीदवार को नापसंद कर नोटा का बटन दबाया।

नक्सलबाड़ी से सटे इसी दार्जिलिंग जिले के फांसीदेवा विधानसभा में कुल 2 लाख 7 हजार 590 मतदाताओं ने मतदान किया। जिसमें से 1.24 प्रतिशत अर्थात 2 हजार 5 सौ 75 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया। फांसीदेवा सीट से कुल सात उम्मीदवार मैदान में थे। विजयी हुए भाजपा के दुर्गा मुर्मू, द्वितीय रहे तृणमूल के छोटन किस्कू और तीसरे स्थान पर रहे पूर्व विधायक सुनील चंद्र तिर्की को छोड़कर बांकी चार उम्मीदवारों को 0.82 प्रतिशत से 1.34 प्रतिशत मत मिला है।

मैदान में उतरे कुल दसों उम्मीदवार को पसंद नहीं किया। डाबग्राम-फूलबाड़ी में कुल 2 लाख 58 हजार 9 सौ 69 मतदाताओं ने मतदान किया। जिसमें से 3 हजार 3 सौ 79 मतदाताओं ने नोटा का चयन किया। जिसमें से 21 मतदाताओं ने पोस्टल बैलेट के जरिए नोटा में मतदान किया। जबकि विजयी हुए भाजपा के शिखा चटर्जी, द्वितीय रहे गौतम देव और तृतीय रहे माकपा के दिलीप सिंह को छोड़कर बांकी सात उम्मीदवारों को 0.21 से 0.54 प्रतिशत के बीच ही वोट मिला। बीच ही वोट मिला। यहां बताते चलें कि नियमानुसार छह प्रतिशत से कम वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है।

मानव हत्याओं, हिंसा, अराजकता और मुस्लिम तुष्टिकरण की जिस बारूदी जमीन पर तृणमूल और ममता बनर्जी ने आज सत्ता हासिल किया है उस जमीन को भद्र भगवा करने की बड़ी और प्रामाणिक शुरुआत और स्थापन उसी नक्सलबाड़ी की जमीन से हासिल होने की राह पर है जिस लाल खूनी बुर्जुआ सत्ता को उखाड़ने में ममता बनर्जी को 34 साल लग गए।

एक विधानसभा चुनाव और उसके बाद बंगाल की जमीन से लाल आतंकी सत्ता के खात्मे की आधी से भी कम उम्र यानी 15 सालों में बंगाल पूरी तरह भद्र भगवा होने के मजबूत मार्ग पर है। और इसे ममता बनर्जी बहुत बेहतर ढंग से जानती हैं… जिसका पहला डर या फैसला कहिये : पश्चिम बंगाल में आरएसएस द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालयों पर प्रतिबंध का आत्मघाती फैसला।

अवनीश पी. एन. शर्मा
मुख्य संपादक
राष्ट्र इंडिया

अवनीश पी. एन. शर्मा

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