बाकी सभी इमारतों की तरह मैं भी महज शहर की एक आम इमारत सा दिखता हूं। लेकिन मेरी पहचान हल्के नीले रंग से सजी दीवारों पर आकाशवाणी का प्रतीक चिन्ह और उस पर लिखा ‘आकाशवाणी लखनऊ’ इसे खास बनाता है। जी हां मैं आकाशवाणी का लखनऊ केंद्र हूं। वही केंद्र जो 18 एबट रोड पर दो मंजिले के किराए के मकान से शुरु हुआ था। सुनने में शायद यह अजीब लगे लेकिन छोटे से सफर से हुई शुरुआत आज 80 साल के सुरीले सफर में तब्दील हो चुकी है। मेरी इमारत की भीतरी सफेद रंग की दीवारों से पटी शहर की मशहूर शख्सियतों की तस्वीरें मेरे सफर का एक खूबसूरत आयाम भर नहीं है, मेरे होने का वजूद हैं। मैं उस वक्त लोगों की आवाज का सशक्त माध्यम बनकर उभरा था और आज भी इस किरदार को बाखूबी निभा रहा हूं। मैंने शहर की तहजीब, नजाकत, नफाजत और जुबां को अपने अंदाज में जिंदा रखा और यही अंदाज-ए-जुबां मुझे बाकी आकाशवाणी केंद्रों से जुदा करते हैं। अपने तारुफ की सेवा समाप्त करते हुए आपको कुछ अनसुने किस्सों से रूबरू करवाता हूं:

और मैं पांच मिनट देरी से शुरु हुआ: अपने वजूद में आने का आपको सबसे दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं। 2 अप्रैल 1938 को मेरी नींव रखी गई। मेरे पहले निदेशक ए.आडवाणी और चीफ इंजिनियर ए.वैंकटेश्वर थे। उस वक्त उत्तर प्रदेश, यूनाइटेड प्रोविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध हुआ करता था और सीएम प्राइम मिनिस्टर हुआ करते थे। पंडित गोविंद वल्लभ पंत यहां के प्राइम मिनिस्टर थे जिन्हें शाम साढ़े छह बजे मेरा उद्घाटन करना था। एच.आर.लूथरा प्रमुख कार्यक्रम अधिकारी थे। इस मौके लिए खासतौर पर लियोनल फील्डन शहर आए थे। प्रोग्राम वक्त से शुरु हो इसलिए बार बार मुख्यमंत्री आवास पर फोन किया जा रहा था, और जवाब कि बस निकल रहे हैं। यहां सिग्नेचर ट्यून बजनी शुरू हो गई लेकिन प्राइम मिनिस्टर का कुछ पता नहीं था। 6:32 मिनट पर प्राइम मिनिस्टर की कार आई। स्टूडियो तक जाने में वक्त लगेगा, सोचकर फील्डन ने लूथरा को आदेश दिया कि वह कंट्रोल रूम में जाकर एक रिकॉर्ड बजा दें। जो रिकॉर्ड उस वक्त बजा उसके बोल थे ‘प्रभु राखों भक्तों की लाज’। लाज तो प्रभु ने रख ली थी लेकिन मैं देश का ऐसा पहला केंद्र बन गया जो अपने तय समय से पांच मिनट देरी से शुरु हुआ।

उस वक्त रमई काका किरदार ने धूम मचा दी थी: चूंकि मैं अकेला रेडियो स्टेशन था, सो ठोक बजा कर उद्घोषक रखे जा रहे थे। उन्नाव जिले के चन्द्रभूषण त्रिवेदी की एक मंडली थी जो गाती- बजाती थी। जिन्हें सुनने के बाद सन 1941 को नौकरी पर रखा गया। उन्हें ‘पंचायत घर’ प्रोग्राम का संचालन सौंपा गया। जिसमें उन्हें काका बनना था। चूंकि वह राम के भक्त थे सो उन्होंने ‘रमई काका’ नाम से प्रोग्राम संचालित किया। 1942 में रमई काका की ‘बौछार’ में प्रकाशित ‘हम कहा बड़ा ध्वाखा हुइगा’ कविता ने खूब चर्चा बटोरी। उसी दौरान रमई काका ने बहरे बाबा नाम से नाटक लिखना शुरू किया जो तकरीबन 41 सालों तक प्रसारित होता रहा। इसके अलावा 1948-49 में बच्चों के लिए बालसंघ प्रोग्राम ने भी खूब तारीफ बटोरी। ग्रामीण महिलाओं के लिए पनघट और शहरी महिलाओं के लिए गृहलक्ष्मी पसंदीदा प्रोग्राम थे।

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विविध भरती ने मुझे जीने के नए आयाम दिए: उस वक्त तक दूरदर्शन आ चुका था। अब लोगों के पास एक ऐसा साधन था, जिसमें वो तस्वीरें भी देख सकते थे। ऐसे में मेरे वजूद पर कुछ तो असर होना ही था। लेकिन जब 1957 में मेरे साथ विविध भारती जुड़ा, तो वक्त जैसे बदल गया। देखते ही देखते विविध भारती के फरमाइशी फिल्मी गीतों के कार्यक्रम घर-घर में गूंजने लगे। फिल्मी कलाकारों से मुलाकात, फौजी भाइयों के लिए ‘जयमाला’, ‘हवा महल’ के नाटक जैसे कार्यक्रम लोगों के जीवन का हिस्सा बनते गए। 1967 में विविध भारती से प्रायोजित कार्यक्रमों की शुरुआत हुई और मेरी लोकप्रियता शिखर पर पहुंच गई। मुझे पता है, अमीन सयानी की “बिनाका गीतमाला” आज भी आपकी यादों का हिस्सा है।

मैं नाटकों का एक अलग फ्रेम था: मैं अपने नाटको की वजह से भी चर्चा में रहा हूं। तब कहा जाता था कि मेरे यहां नाटक करने लोग कोलंबो से आते थे। अपने नाटको की वजह से मैं लाहौर के बाद सबसे ज्यादा पहचाना जाता था। यहां अमृतलाल नागर जैसे बड़े साहित्यकारों ने नाटकों का लेखन और संपादन किया। राधे बिहारी लाल श्रीवास्तव,मुख्तार अहमद, पी.एच.श्रीवास्तव, शहला यास्मीन, आसिफा जमानी, प्रमोद बाला और हरिकृष्ण अरोड़ा जैसे नाटक कलाकारों का कोई सानी नहीं हुआ। यहीं से विमल वर्मा, विजय वास्तव, अनिल रस्तोगी, शीमा रिजवी, कुमकुमधर और संध्या रस्तोगी नाटक के दिग्गज कलाकार हुए हैं।

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कलाकर जो मुझसे जुड़े रहें: बेगम अख्तर, तलत महमूद, बिस्मिल्लाह खां, उस्ताद अली अकबर, मदन मोहन, सुशीला मिश्र, विनोद कुमार चटर्जी, विद्यानाथ सेठ, इकबाल अहमद सिद्दीकी, आलोक गांगुली, मोहम्मद यरकूब, सर्वेशवर दयाल सक्सेना, गरिजा कुमार माथुर, भगवती चरण वर्मा, विद्यानिवास मिश्र, रमानाथ अवस्थी, पंडित मदन मोहन मालवीय, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, जोश मलिहाबादी, जिगर मुरादाबादी, असर लखनवी, मजाज और शकील बदायूंनी।

बिस्मिल्लाह खां मेरे दरवाजे पर माथा टेकते थे: शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां प्रोग्राम करने कहीं भी जा रहे हों वह अपना सफर रोक कर मेरे मुख्य द्वार पर सजदा करते हुए और मेरे परिसर में किशन द्ददा से मिले बगैर कहीं नहीं जाते थे। उनके दिल में यह बात थी कि उन्हें बनाने में मैंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

आइए इनकी भी सुनें:

तब कैसरबाग फोन एक्सचेंज ब्लॉक हो जाते थे: यूं तो लखनऊ आकाशवाणी केंद्र से मेरा बचपन से ही नाता रहा है। लेकिन मेरे जेहन में एफएम आने के बाद जो यादें बसी हैं वो बहुत खास हैं। 20 अगस्त 2000 से 100.7 मेगाहर्ट्ज पर जब एफएम का प्रसारण हुआ तो इसे रेडियो के पुनर्जन्म का नाम दिया गया। यह पूरी तरह से इंटरटेनमेंट चैनल हुआ करता था। इनमें से हैलो एफएम लाइव फोन इन प्रोग्राम काफी पॉपुलर हुआ। आप यूं समझिए कि आधे घंटे के प्रोग्राम के दौरान कैसरबाग फोन एक्सचेंज ब्लॉक हो जाया करता था। हमारे पास शिकायतें आती थी कि आपका फोन नहीं मिलता। इसके अलावा गुडमॉर्निंग लखनऊ और एफएम मेहमान कार्यक्रम ने भी उस वक्त खूब धूम मचाई थी। एफएम मेहमान के हमारे पहले मेहमान के.पी.सक्सेना थे। मैं ही तीनों प्रोग्राम का संचालन करती थी। हालांकि मैं उस वक्त ऑफिसर पद पर तैनात थी लेकिन लोग मुझे उद्घोषक ही समझते थे।

-रमा अरूण त्रिवेदी, प्रोग्राम हेड, दूरदर्शन

आकाशवाणी लखनऊ साहित्य और कला का पर्याय है: मैंने 1969-2002 तक लखनऊ आकाशवाणी में सेवा दी है। यहां की खासियत रही कि इसने कला के पारखियों को तलाशा और उन्हें खुद से जोड़ा। इस तलाश में डिग्रियों की कभी कोई जगह नहीं रही। जिसकी वजह से हमारे साथ वो लोग भी जुड़े जो कभी स्कूल तक नहीं गए। इनमें ढोलक वादक बफाती भाई जैसे कई नाम शामिल है। दूसरा यहां के प्रोग्राम के किरदार बहुत पॉपुलर हुए। जैसे पंचायत घर के रमईकाका, पलटू/ झपेटे, बालसंघ के रज्जन लाल उर्फ भैय्या और दीदी के किरदार। प्रोग्राम की बात करूं तो पत्र के लिए धन्यवाद और प्रसारित नाटकों को श्रोताओं का खूब प्यार मिला।

-शारदा लाल, रिटायर्ड प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव, आकाशवाणी

बेगम अख्तर को दी नई जिन्दगी: गजल गायिका अख्तरी बाई फैजाबादी ने 1945 में बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से निकाह किया। जब दोनों के बीच शादी की बात हुई तो शर्त रखी गई कि वह संगीत से रिश्ता तोड़ लेंगी। जिस पर बेगम अख्तर राजी हो गई। लेकिन 5 साल तक आवाज की दुनिया से दूर रहने का सदमा वह बर्दाश्त न कर सकीं और बीमार रहने लगीं। हकीम और डॉक्टर की दवा ने भी कोई असर न किया, नतीजन उनकी तबियत बिगड़ने लगी। हालातों को देखकर पति और घर वालों ने आकाशवाणी में गाने की इजाजत दे दी। पहला प्रोग्राम ठीक से न गा सकने की वजह से अखबार में उनकी काबिलियत पर उंगली उठाई गई। लेकिन उसके बाद आकाशवाणी की वजह से उन्होंने अपनी खोई पहचान वापस पा ली।

-पृथ्वी राज चौहान, स्टेशन डायरेक्टर, आकाशवाणी

हमारी शैली आज भी वही है: आकाशवाणी का अब तक का सफर बहुत शानदार रहा है। आज भी हम अपनी पुरानी शैली पर काम कर रहे है शालीन भाषा का प्रयोग करना हमारी कोशिश रहती है। हमारे पुराने प्रोग्राम के नाम जरूर बदल गए है लेकिन कंटेंट में कोई बदलाव नहीं है।

अनुपम पाठक, हेड प्रोग्रामिंग एग्जीक्यूटिव, आकाशवाणी

बॉक्स:

सईदा बानो थी पहली उद्घोषिका

15 अप्रैल 1953 को 6 बजकर 40 मिनट से पहला बुलेटिन प्रसारित हुआ था।

मुकेश पाण्डेय

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