हिंदी और भोजपुरी के ललित निबंधकार विवेकी राय जी के गुजरला चार साल होखे वाला बा. उहां के एगो बात कहत रहनीं.पहिले गांव में पगडंडी जात रहली स. अब गांव पगडंडी से सड़कि पर आ गइल बाड़े स.
भोजपुरी- हिंदी इलकन में सड़कि पर आइल के मतलब बहुते खराब मानल जाला.जेकर दिन खराब होला, ओकरा बारे में कहल जाला कि फलाना सड़कि पर आ गइल. पहिले के जमाना पर गांव के बहरा सड़कि पर चट्टी होत रहल हा. उहवां जुटे वालन के बारे में लोगन के भाव आच्छा ना रहत रहल हा.जमाना बदलल आ सड़कि पर बैइठल बड़ाई के बात हो गइल. अइसन में गंउआ भला काहें पगडंडी के किनारा रहिते स.उहो अब सड़कि पर आवत गइले स.

हड़प्पा के सभ्यता होखे चाहे आजु के जमाना. सड़कि विकास आ परगति के परतीक बाड़ी स. कायदा से सड़कि के नजदीक अइला से गांव के विकास होखे के चाहीं. विकास के लच्छन हर क्षेत्र में लउके के चाहीं, लेकिन दुर्भाग कहलि जाइ कि भोजपुरी इलाका विकास के संगे आपन संस्कृति के धनी बनावे के बजाय ओकरा के बाजारू बना दिहलस.
गांवन के हर चट्टी से गुजरीं त जाताना अश्लील गाना बाड़े स.सब बाजत सुनइहें स.लोगो लोकलाज भुला गइल बा.भोजपुरी में अब चुम्माचाटी से लेके साड़ी-साया के नीचे तक के बात गीतन में खूब हो रहल बा.

का भोजपुरी के गांव आ संस्कृति अइसने रहलि हा

एह सवाल के जवाब एकदमे ना में बा. ढेर ना. पिछलका सदी के नब्बे के दशक के शुरूआत तक के दिन यादि करीं. सावन के अन्हार बदरी के बीच खेत में लागत लेव आ ओह में होत धन रोपनी यादि करीं. खनकत चूड़ियन के सुर के बीच मेहरारून के तान जइसे पूरा सरेह के दिल जीत लेत रहलि. खेत के कादो-पांक के छींटा से रंगाइल गंवई सौंदर्य में तब अउरी चार चांद लागि जात रहे. जब रोपनी के गीत गूंज उठति रहे.

खेत में खाली फसल ना गीत भी लहलहात रहल हा

भादो के दिन में तेज पुरूआ हवा के बीच आसमान में सूरज देवता कबो बादरि से घेरा जासु त कबो एकदम से झक से बदरियन के हटा के दुनिया के चमका देसु. अइसन माहौल में सोहनी होत रहे. कहीं धनखेती में त केहू के जनेरा यानी मकई में, कहीं टांगुन के खेत खुरपी चले त कहीं रहरि के पौधा के घासि से उबारल जात रहे. सोहनी के माहौल तब अउर हरियरा जाउ.जब सोहनी करेवाली मेहरारू झन से सोहनी गीतन के एगो सुर में उठा देत रहलीं लोग.

तब लागे कि जइसे गांव जीवंत हो गइल

जब राति होखे त हर मोहल्ला में कवनो एगो दुआर पर मरदन के बइठकी जमि जाइ. रामायण जी के पाठ होखल शुरू हो जाइ. तब गांव में बिजुरी माई के दरसन कम होत रहे. टीवी पर सासु-बहू के झगड़ा वाला दौर ना रहे.घर-घर में सात –साढ़े सात तक रात के भोजन-पानी हो जात रहे. रामायण पाठ के बेरा मोहल्ला के बुजुर्ग माता-बहिनि, फुआ-मउसी आके एक ओर बइठि जात रहलीं आ मोहल्ला के जवान लोग कंठेसुर में पाठ करे लागसु लोग. रामायण माने तुलसी बाबा के राम चरित मानस. नियम से पाठ के बीच जहिए सीता के विदाई होखे भा राम के वन गमन. माई, फुआ के आंखि से लोर के जवन धार छूटे तक जलदी बने ना होखे.

कथागीत के टाइम

जब-जब हम कहीं रामायण पाठ सुनेनीं, बचपन के दौरान गांव के राम जानकी मंदिर पर रोजाना होखे वाला पाठ यादि आ जाला. आ यादि आवेले मुनिलाल कोंहार. मंदिर से हमार घर दू सौ मीटर के करीब दूर बा, लेकिन मुनिलाल के पाठ हमनी के जइसे दूसरा दुनिया में पहुंचा देत रहे. तब अइसन लागे, जैसे गांव के पूरा सीवान तक रामजी के भक्ति में डूबि गइल. गरमी के दिनन में कबो-कबो सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरही-संघर्ष वाला कथागीत भी सीवान के कवनो कोना से उभरि आवे त बिजलीविहीन गंवई रतियन के सन्नाटा के आपना दर्द भरल सुर से चीर देत रहे. ओह दर्दो में भी अलग तरह के रोमांटिसिज्म होत रहे. जेकर वर्णन कइल आसान नइखे. बस ओकरा के समझल जा सकेला. ठीक ओइसे.जैसे गूंगा व्यक्ति मीठ फल के रस अंदरे अंदर समझेला, लेकिन कहि ना पावेला.

बुंदेलखंड से नाता

एहि तरी चैत-बैसाख अउर जेठ के रतियन में महोबा के वीर भाई आल्हा-उदल के वीरता वाली कहानी पर आधारित आल्हा जब वीर रस में सीवान के कवनो कोना से कवनो पुरूष आवाज में गूंजे त सीवान, खरिहान भा आपाना दुआर पर खटिया-चौकी पर लेवा बिछाके सुतल रहे लोगन के कान ओनिए केंद्रित हो जात रहे.

भाषा के आपन ‘लय’

भोजपुरी समाज जीवंत समाज रहल हा.आ भाषा भी बहुते लयबद्ध. भाषा विज्ञानी आ एनसीईआरटी में प्रोफेसर प्रमोद दुबे के भोजपुरी के लेके जबरद्स्त ऑब्जर्वेशन बा. उहां के कहनाम बा कि भोजपुरी में लय है. जवना के आजु के कथित सभ्य समाज रेघावल मानेला. आ एकर मजाक उड़ावेला. असलियत में ऊ भोजपुरी के खासियत ह.भोजपुरी के ई विशेषता ही कारण मानल जाला कि एकरा नस-नस से रस के धार बहेला.
टीवी अउर तकनीक के अइला के बाद कायदे से इस रसधार में तेजी आवे के चाहत रहे. लेकिन भइल एकर ठीक उलुटा.भोजपुरी गारी के गवनई के रूप में स्थापित होत चलि गइल.एकर आजु बहुते लोगन के अफसोस बा.भोजपुरी खाली चोली, साया-साड़ी के उद्घाटन करे वाली भाषा ना हा.ना ई.
कजरी अब पिया के यादि ओह हिसाब से नइखे दियावत, जइसे टीवी के जमाना के पहिले दियावत रहे, अब खाली समय में केहू के पास ढोलकि-झाल आ कठताल के संगे सुमधुर आ शिक्षाप्रद गवनई के ना कला बांचल बा ना फुरसत.होरी अउर चइता भी अब बाजारू गवइन के चूमा-चाटी गीत में समा गइल बा.

भोजपुरी के धार कबो ना सूखी

भोजपुरी में मानल जा रहल बा कि एकर संस्कृति खो गइल बा.लेकिन एह मोका पर एकबार फेरू विवेकी राय जी यादि आवतानीं. उहां के कहनाम रहे कि संस्कृति ना त एक साल में बनेले ना एक दिन में.ऊ पत्थर के नीचे छुपल दूबि के जरि नियर होले. जब ओकरा मोका लागेला.आपन हरियरी लेले पत्थर के दरारो में से निकलि जाले. हमरा भरोसा बा. भोजपुरी के संस्कृति के गीत-गवनई वाली धार सूखल नइखे. ऊ हमनी जीन में गहराई में कहीं छुपल बिया. अगर अइसन ना रहित त चाहे साल के अंतर होखे या समंदर के. जइसहिं उ हमनी के कान में परेला. हमनी के करेजा उछले लागेला. मुड़ी हिले लागेले आ मन गांव के सीवान-सरेह में कहीं गहरा तक डूबे लागेला. हमनी के बस कोसिस जारी रखे के परी. मोका मिलते उ उभरि के गाई. कबो विरह में डुबाई त कबो रामजी के यादि दिलाई.

मुकेश पाण्डेय

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