छुओ न मेरा तट लहरों
जा कहीं सुकोमल गान भरो

मेरी ही तृष्णा मुझको
सरिता के पास सुला जाती है
मेरे ही खातिर मलयानिल ,
आकर धूल उड़ा जाती है
मेरे ही उर पर
राका – परियां श्रृंगार किया करती हैं
मेरे ही दुःख से
धरती पर अश्रु -ओस
टपका करती है
मेरे निशीथ में , विधुत बन
मेरा न अधिक अपमान करो
छुओ न मेरा तट लहरों
जा कहीं सुकोमल गान भरो

तिरता , तिरता
उठता , गिरता
सरि के पार चला जाता हूँ
कभी- कभी अपनी परछाईं-
से ही मैं घबरा जाता हूँ
सपनों का संसार बसा के
धीरे- धीरे सो जाता हूँ
छुई -मुई की नरम डाल हूँ
छूटे ही मुरझा जाता हूँ
इस निर्झर में झर-झर स्वर भर
अब न मुझे लयमान करो
छुओ न मेरा तट लहरों
जा कहीं सुकोमल गान भरो

मुकेश पाण्डेय

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