विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में दलबदल का सिलसिला कायम हो जाने पर हैरानी नहीं। यह तय है कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर गोवा, मणिपुर और पंजाब तक में यह सिलसिला और तेज होगा। दलबदल की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि राजनीतिक दल खुद इसे बढ़ावा देते हैं। कई बार तो वे दूसरे दलों के नेताओं को अपने दल में इसलिए भी लाते हैं, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि उनके पक्ष में हवा चल रही है।
यह बात और है कि इसके आधार पर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कौन दल बढ़त हासिल करने जा रहा है, क्योंकि अक्सर नेता अपना टिकट कटने के अंदेशे में पाला बदलते हैं। विचारधारा उनके लिए कपड़े की तरह होती है। वह उसे न केवल बहुत आसानी से बदल लेते हैं, बल्कि उसके लिए सुविधाजनक तर्क भी गढ़ लेते हैं। बतौर उदाहरण उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने दलितों, पिछड़ों, बेरोजगार नौजवानों आदि की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए भाजपा छोड़ दी। वह तत्काल प्रभाव से समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए।
स्वामी प्रसाद बसपा से भाजपा में आए थे। करीब पांच साल तक मंत्री रहने के बाद अचानक उन्हें याद आया कि वह जिस सरकार में मंत्री हैं, उसमें दलितों, पिछड़ों, नौजवानों और व्यापारियों की उपेक्षा हो रही है। पता नहीं वह उन लोगों में शामिल थे या नहीं, जिनका टिकट कटना था, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि ऐसे कई विधायक और मंत्री हैं, जिन्हें इस बार भाजपा अपना उम्मीदवार नहीं बनाने वाली। अगले कुछ दिनों में ऐसे नेता अन्य दलों में दिखें तो हैरानी नहीं।
यह भी स्पष्ट है कि अन्य दलों के कुछ नेता भाजपा की राह पकड़ सकते हैं। चंद दिनों पहले सपा के संस्थापक सदस्य शतरुद्र प्रकाश ने भाजपा का साथ पकड़ा। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चेहरा माने जाने वाले इमरान मसूद सपा के साथ हो गए। जैसा उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है, वैसा ही विधानसभा वाले अन्य राज्यों में भी। पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में कई नेता इधर-उधर होने शुरू हो गए हैं। जब सत्ता की मलाई सवरेपरि हो तब फिर विचारधारा केवल एक आड़ ही होती है। नेता यह आड़ लेने में इसलिए समर्थ हो जाते है, क्योंकि जाति, मजहब में बंटा मतदाता भी दलबदलुओं को पुरस्कृत करता है। इसी कारण दलबदलू मंत्री ऐसे थोथे आरोप के साथ सामने आते हैं कि उनके लोगों की उपेक्षा हो रही थी। साफ है कि ऐसे नेता मंत्री होकर भी जाति-बिरादरी की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाते और वे पूरे समाज के लिए काम करने के बजाय अपने लोगों के हित साधते हैं।