1920 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को भंग कर एएमयू एक्ट लागू किया गया था। संसद ने 1951 में एएमयू संशोधन एक्ट पारित करते हुए इस यूनिवर्सिटी को गैर मुसलमानों के दाखिले के लिए भी खोल दिया। इसके बाद 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने अजीज बाशा केस में एक अहम फैसला देते हुए कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी माइनॉरिटी संस्थान नहीं है क्योंकि इसका गठन संसद में कानून के जरिए हुआ है न कि मुसलमानों द्वारा।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को न मानते हुए 1981 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने संविधान संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि 1981 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संविधान संशोधन तक के लिए जाना और यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा देना.. उसके माइनॉरिटी स्टेटस की किसी चली आ रही व्यवस्था की बहाली का मामला नहीं था बल्कि 1951 के संसद से पास एएमयू संशोधन एक्ट के मुँह पर तमाचा मारते हुए एक नयी शुरुआत थी।
2004 में यूनिवर्सिटी ने पीजी कोर्सों के दाखिले में 50 फीसदी सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित किया जिसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल हुई और हाईकोर्ट ने यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान न मानते हुए उसके निर्णय को पलट दिया। जिसके बाद 2005 में एएमयू और तत्कालीन कांग्रेस की केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में गए जहाँ एएमयू ने अपना पक्ष रखते हुए अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे के आधार पर सीटों के आरक्षण की बात कही।
इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण के दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है।

फिर आया साल 2016 और सुप्रीम कोर्ट में इसी 2005 के मुकदमे में सुनवाई के दौरान वर्तमान केंद सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने जस्टिस जेएस शेखर, जस्टिस एमवाई इकबाल और जस्टिस सी नगप्पन की बेंच को बताया कि भारत सरकार का मत है कि अलीगढ यूनिवर्सिटी माइनॉरिटी यूनिवर्सिटी नहीं है. ‘भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और हम यहां माइनॉरिटी संस्था का गठन होते हुए नहीं देखना चाहेंगे इसलिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के साथ खड़े हैं।
जस्टिस इकबाल ने इस पर अटॉर्नी जनरल से पूछा, ‘क्या केंद्र में सरकार बदलने की वजह से स्टैंड बदला जा रहा है?’ रोहतगी का जवाब था, पिछला स्टैंड गलत था। इसलिए हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ एएमयू के साथ अपनी यानी 2005 की कांग्रेस सरकार की साझा अपील को वापस लेना चाहती है और मानती है कि 1968 में अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही था और AMU को माइनॉरिटी संस्थान नहीं करार दिया जा सकता क्योंकि इसे संसद के एक कानून के द्वारा बनाया गया है। अब एएमयू इस केस को अकेले लड़ रही है जिसमें वर्तमान केंद्र सरकार उसके साथ नहीं है।

इस तरह देखा जाय तो मजहब के आधार पर देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले को संविधान संशोधन से पलटने और संविधान के साथ धार्मिक आधार पर खेलने की पहली चर्चित घटना शाहबानों का गुजारा भत्ता केस नहीं बल्कि साल 1981 का अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी है।
जिसके सामने 1951 के संसद की भावना के खिलाफ, 1967 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ और 2004 के हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ.. न खड़ा होते हुए केंद्र सरकार है जो 1951 की संसद की भावना के मुताबिक और 2004 के फैसले के समर्थन में 1967 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी माइनॉरिटी संस्थान नहीं है क्योंकि इसका गठन संसद में कानून के जरिए हुआ है न कि मुसलमानों द्वारा।” दुहराते हुए संविधान की भावना, संसद की इच्छा और न्यायपालिका के फैसलों की मर्यादा का सम्मान किया।
साफ़ तौर पर यह मामला देश की सर्वोच्च अदालत और संवैधानिक व्यवस्था के तहत स्थापित एक संस्थान के बीच के फैसलों के क्रम में एक संवैधानिक और अदालती जंग है जिसमे सरकार की भूमिका बेहद सीमित और संविधान के साथ खड़े रहने भर की है और वह खड़ी है।
और अंत में प्रार्थना : अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय सहित ऐसे हर फर्जी अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ ही ईसाई संस्थानों के अल्पसंख्यक दर्जे की समाप्ति हो। यही देश की अदालतें चाहती हैं और वर्तमान केंद्र सरकार इस विषय पर देश की सर्वोच्च अदालत के साथ है।
(#अवनीश पी. एन. शर्मा)