एक गंदी मछली की क्या औकात कि वह तालाब को गंदा कर दे। मगर जब तालाब ही दलदल बना दिया गया हो तो बात और है। फिर बेरहम मगरमच्छ तय करते हैं कि किसके साथ क्या सुलूक किया जाए। वे मगरमच्छ मादा भी हो सकते हैं। ऐसे भयावह दलदलों और हिंसक छीनाझपटी के बीच उनमें रहने वाले जीवों का फिल्मांकन खूब हुआ है, कभी देखिए कि उस दुनिया में चलता क्या है?
लंबी भूमिका के बगैर बता दूँ कि मैं बात तीस्ता सीतलवाड़ की कर रहा हूँ, जिसे आखिरी बार एक वीडियो में शाहीनबाग के सुनहरे दौर में देखा था। किसी ने मोबाइल पर वह वीडियो बनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने शाहीनबाग के समाधान के लिए तीन सदस्य नियुक्त किए थे, जो चर्चा के लिए जाने वाले थे। तीस्ता उस वीडियो में शाहीनबाग की रौनक बनाई गई औरतों और नौजवान लड़कियों के दिमाग तैयार कर रही थीं।
वे बता रही थीं कि बाहरवालों से उन्हें क्या बात करनी है, कितना बोलना है और हर सवाल पर उन्हें क्या जवाब देना है। हमने देखा कि मदरसा छाप बुरकापोश औरतें अचानक सीएए की समझदार खवातीन बनकर बक रही थीं कि हम भी इस देश के नागरिक हैं।
हमारे पुरखे यहीं के थे। हम मुल्क छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे। अगर सीएए लागू हुआ तो हमें हमारे घरों से निकाला जाएगा। हम यह बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह मुल्क हमारा है।
बात-बात पर बेवकूफ बनने और बनाने को तैयार एक मौकापरस्त जमात के बीच वह ब्रेनवॉश रिपब्लिक का एक शानदार दृश्य था। अगर दिमाग में साजिशें एक आदत बन चुकी हों तो बेसिरपैर के मसलों को कैसे सरकार के खिलाफ हवा देकर आग भड़काई जाए, वह वीडियो इसका नमूना था। तीस्ता को इस काम का कम से कम बीस साल का तजुर्बा था। यूपीए के विजनरी शासकों ने उन्हें पद्मश्री देने के लिए यूँ ही राष्ट्रपति भवन में आने का न्यौता नहीं दिया था।
गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस का डिब्बा जलाया गया और 59 निर्दोष यात्रियों को जलकर मरने के लिए मजबूर किया गया, तब मैं नईदुनिया में था। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था कि वे स्वामी विवेकानंद के हिंदुत्व के पक्षधर हैं।
चीफ एडिटर अभय छजलानी ने उस दिन मुझे बुलाकर कहा कि पीएम अगर स्वामी विवेकानंद के हिंदुत्व के पक्षधर हैं तो जरा पता करो डॉ. हेडगेवार का हिंदुत्व क्या है?
अगले पाँच महीनों तक उन्होंने हिंदुत्व पर मेरा रोचक अभ्यास कराया। इस दौरान मैंने रामकृष्ण मिशन से लेकर विवेकानंद के दसों खंड पूरे पढ़े। फिर महर्षि अरविंदो से लेकर महर्षि महेश योगी और महात्मा गाँधी से लेकर ओशो तक के विचारों लिए किताबें जुटाईं। सात-आठ हजार शब्दों में सबके हिंदुत्व एक दिन अभयजी की टेबल पर रख दिए।
उस साल का नईदुनिया का दीपावली विशेषांक हिंदुत्व पर छपा और अभयजी प्रसन्न थे कि दीपावली के बाद भी उसे पाठकों की माँग पर दुबारा छापा गया। नईदुनिया के पुराने पाठक जानते हैं कि विष्णु चिंचालकर की कवर कलाकृति से सुशोभित नईदुनिया का दीपावली विशेषांक एक संग्रहणीय वार्षिक वैचारिक अनुष्ठान था, जिसका इंतजार लोग महीनों पहले से करते थे और उसमें छपना हिंदी के किसी भी लेखक के लिए गौरव की बात थी।
2002 में नरेंद्र मोदी की राजनीतिक मूर्ति इतनी बड़ी नहीं थी। वे बीजेपी की राजनीति में एक नया उभरता हुआ चेहरा थे, जिन्हें गुजरात की सत्ता किसी चमत्कार से मिल गई थी। वे मंडल अध्यक्ष, पार्षद, महापौर, विधायक और मंत्री के आम रास्ते से सीएम की कुर्सी तक नहीं पहुँचे थे। वे एक अलग पगडंडी पर झोला टाँगकर निकले थे।
गोधरा की बर्निंग ट्रेन ने गुजरात को सुलगा दिया था। देश में दंगों का इतिहास पुराना था लेकिन एक बीजेपी शासित राज्य में दंगों ने देश की दुष्ट जमातों को मौका दे दिया था कि वे अपने-अपने आटे एक साथ गूंथकर रोटियाँ सेंकें।
आजाद भारत के इतिहास में अनगिनत मुख्यमंत्री हुए। कॉन्ग्रेसी भी और गैर कॉन्ग्रेसी भी। मगर मोदी अकेले हैं, जिन्हें एक संगठित साजिश के तहत राष्ट्रव्यापी विरोध का लगातार सामना करना पड़ा। मोदी की मूर्ति को महान बनाने में तीस्ता सीतलवाड़ों की विस्तृत और अखंड भूमिका है। इससे पहले कभी किसी राज्य के मुख्यमंत्री को देश की ताकतों ने इस तरह निशाना नहीं बनाया था।
लाशों के असली सौदागर जानते थे कि मौत पर सौदेबाजी होती कैसे है। देश का रक्तरंजित बटवारा हिंदुओं की लाशों पर हुआ भारत के इतिहास का सबसे भयानक सौदा ही था। मगर वे मोदी को मौत का सौदागर करार दे रहे थे। उन्हें देश-विदेश में हर कहीं बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी।
गोधरा को भुलाकर गुजरात के दंगों को हवा देना उस दौर का शाहीनबाग ही था। तीस्ता तो उस टूल किट में पड़ा एक मैला नटबोल्ट ही थी। असली मगरमच्छ अपने हिस्से की भरपूर खुराक हजम करने के बाद नेशनल हेराल्ड के टापू पर धूप सेंक रहे थे।
कोई एक आरोप लगा दे तो फिर देखिए। आज बात-बात पर पलटवार के लिए नेता एक पैर पर खड़े होते हैं। मोदी न कभी पलटे, न कभी वार करते नजर आए। उनकी शांत मूर्ति और चिढ़ाने वाली होती थी।
साजिश करने वाले गुजरात दंगों को इस तरह प्रचारित करने में कामयाब हो गए जैसे मोदी परदे के पीछे से दंगाइयों का नेतृत्व किसी माफिया की तरह कर रहे थे और जिन्ना जैसा कोई डायरेक्ट एक्शन ले लिया गया था। जबकि हकीकत कुछ और थी।
एक कॉन्क्लेव में दिग्विजय सिंह के सवाल पर उन्होंने कह दिया था कि दंगों पर काबू के लिए पुलिस बल भेजने के गुजरात के आग्रह को कॉन्ग्रेसी सरकारों ने गौर तक नहीं किया था। दंगों के समय दिग्गी राजा दस साल तक मध्यप्रदेश के होनहार मुख्यमंत्री थे।
अटलबिहारी वाजपेयी के अवसान पर मैंने उन्हें राजनीति का देवानंद कहा था। वे बिल्कुल सियासत की शोखियों में घोले गए फूलों का शबाब ही थे। वे एक दिन गाँधीनगर में प्रेस के सामने मोदी को राजधर्म निभाने की सीख देते हुए देखे गए। बगल में बैठे नरेंद्र मोदी ने बहुत धीमे स्वर में वहीं कह दिया था कि हम वही कर रहे हैं।
किसी प्रधानमंत्री के सामने मुख्यमंत्री की वह एक ऐसी टोकाटोकी थी, जैसी मोदी के व्यक्तित्व में न पहले और न ही बाद में कभी देखी गई।
वह सियासी कश्मकश का ऐसा विकट समय था, जब कॉन्ग्रेसी, कम्युनिस्ट, मीडिया का एक बड़ा तबका, मशहूर शायर, मालामाल एनजीओ अकेले मोदी के सामने सब एक थे। क्या वे चूहे अपने भविष्य को देख रहे थे कि उनके जहाज किस एक आदमी की वजह से डूबने वाले हैं?
राहत इंदौरी महफिलें लूटने वाले मुशायरों में बड़ी हेकड़ी से एक शेर पढ़ा करते थे कि जो कौम मरने वालों को नहीं जलाती, वह जिंदा लोगों को क्या जलाएगी? गोधरा को क्लीन चिट दे दी गई थी और दंगों की लपटें मोदी की तरफ मोड़ दी गई थीं।
रेल मंत्री लालू यादव के बयान आग में पेट्रोल उंडेलने वाले थे। एक चाबी भरा हुआ प्रधानमंत्री अपनी अक्ल का इस्तेमाल किए बिना कह रहा था कि इस मुल्क के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। उनकी नजर में मुल्क के संसाधन किसी की खानदानी बपौती थे।
आज जो भी सामने है, उसकी जड़ें आसमान में नहीं, अतीत में हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण की देश घातक नीतियाँ कॉन्ग्रेस के लिए भी आत्मघाती साबित हुईं। इसकी शुरुआत का साल 1920 है, जब मोहनदास करमचंद गाँधी कॉन्ग्रेस में अवतरित हुए।
अब वह बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल और लाला लाजपत राय की कॉन्ग्रेस नहीं थी। गाँधी तुर्की से भगाए गए इस्लाम के खलीफा के दुनिया में सबसे बड़े और एकमात्र हिमायती बनकर सामने आए थे। खिलाफत आंदोलन कॉन्ग्रेस के गर्भ में डाला गया उनका एक नाजायज शुक्राणु था।
कॉन्ग्रेस के गर्भ में वह गाँठ उसी के लिए जानलेवा सिद्ध हुई है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया के रचयिता अपनी सफेद शेरवानी में लाल सुर्ख गुलाब खोंसकर लाल किले से भारत की नियति का साक्षात्कार कर रहे थे और हमारे ये विजनरी लीडर पचास साल बाद का भविष्य भी नहीं देख पा रहे थे!
बटवारे की खूनी बुनियाद पर हमने उन्हें अपने पालतू श्वान के साथ प्लेन में से उतरते हुए और अपने होठों में दबी सिगरेट के साथ अपनी महिला मित्र की सिगरेट सुलगाते हुए दियासलाई सहित एक फरेबी मुद्रा में देखा।
तीस्ता सीतलवाड़ उस सेक्युलर ईको सिस्टम एक टुच्चा नाम है, जिसे सेक्युलर परिवेश में फलने-फूलने के मौके मिले। इस ईको सिस्टम में नामी एडिटर, जज, शिक्षाविद, लेखक, शायर, सामाजिक कार्यकर्ता नाम के पाप के भरे हुए घड़े थे, जो धर्म से निरपेक्ष भारतीय राजनेताओं के सिर पर कलश की तरह सजे थे।
इसी खुशगवार माहौल में हिंदू टेरर की थ्योरी रची गई और उस काले कानून का ड्राफ्ट भी तैयार हुआ, जिसमें दंगा कोई भी करे, सूली पर हिंदुओं को खड़ा होना था। वह हिंदुओं के ताबूत में आखिरी कील जैसा कानून था। मगर इसके रचनाकार भूल गए थे कि हिंदुओं को ताबूत की जरूरत ही नहीं होती।
आखिर में मरहूम इरफान जाफरी, जो कॉन्ग्रेस के ही बड़े नेता थे और गुलबर्ग सोसायटी के हत्याकांड के शिकार हुए। वही गुलबर्ग, जिसकी राख पर तीस्ता गुल खिलाने निकली थीं। मोदी काे मजा चखाने की उनकी शातिर कोशिशें शाहीनबाग तक चली हैं।
इन सब घटनाओं में एक पक्ष मुसलमानों का है। उन मुसलमानों का जो सौ फीसदी भारतीय हैं। विचार से न सही, जन्म और खून से भारतीय। भारतीय हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों के भूली-भटकी याददाश्त के वंशज।
अभी एक बहस में तस्लीम रहमानी नाम के दानिशमंद मुसलमान ने कुबूल किया कि उनके दादा मेरठ के एक जैन परिवार के थे। यह धर्मांतरण कोई चार-छह सौ साल के नहीं हैं। दो-चार पीढ़ियों की पलटी है।
आज वे कश्मीर को काफिरों से मुक्त करते हैं। गोधरा में ट्रेन पर भभकते हैं। कभी शाहीनबाग में सजकर बैठ जाते हैं। मौका मिलने पर कानपुर और दिल्ली में भीड़ बनकर कोहराम मचा देते हैं। इनके बीच तीस्ता अकेली नहीं है।
वह अपने दलदली अभयारण्य में फलती-फूलती शातिर जमातों में से एक की एक मामूली कड़ी है, जो कॉन्ग्रेस के हाथ से इस देश के पैरों पर मारी गई कुल्हाड़ियाँ हैं।
देश के सबसे महँगे इलाकों में से एक मुंबई के जुहू इलाके के आलीशान बंगले में पद्मश्री तीस्ता सीतलवाड़ के शौहर जावेद तो बैठे-ठाले जिहाद का आनंद ले रहे थे! वे एक फोन कॉल पर यूपीए की मालकिन के सीधे संपर्क में थे। एक एनजीओ की मालकिन के ऐसे शाही ठाट यूँ ही तो मुमकिन नहीं थे?