पहला नियम तो ये था कि औरत रहे औरत,

फिर औरतों को जन्म देने से बचे औरत;

जाने से पहले अक़्ल-ए-मर्द ने कहा ये भी,

मर्दों की ऐशगाह में ख़िदमत करे औरत।

इतनी अदा के साथ जो आए ज़मीन पर,

कैसे भला वो पाँव भी रखे ज़मीन पर;

बिस्तर पे हक़ उसी का था बिस्तर उसे मिला,

ख़ादिम ही जाके बाद में सोए ज़मीन पर।

इस तरह खेल सिर्फ़ ताक़तों का रह गया,

एहसास का होना था, हिकमतों का रह गया;

सबको जो चाहिए था वो मर्दों ने ले लिया,

सबसे जो बच गया, वो औरतों का रह गया।

यूँ मर्द ने जाना कि है मर्दानगी क्या शै,

छाती की नाप, जाँघिए का बाँकपन क्या है;

बाँहों की मछलियों को जब हुल्कारता चला,

पीछे से फूल फेंक के देवों ने कहा जै।

बाद इसके जो भी साँस ले सकता था, मर्द था

जो बीच सड़क मूतता हगता था, मर्द था;

घुटनों के बल जो रेंगता था मर्द था वो भी,

पीछे खड़ा जो पाँव मसलता था, मर्द था।

कच्छा पहन के छत पे टहलता था, मर्द था

जो बेहिसाब गालियाँ बकता था, मर्द था;

बोतल जिसे बिठा के खिलाती थी रात को,

पर औरतों को देख किलकता था, मर्द था।

जो रेप भी कर ले, वो मर्द और ज़ियादा,

फिर कहके बिफ़र ले, वो मर्द और ज़ियादा;

चलती गली में कूद के दुश्मन की बहन को,

बाँहों में जो भर ले वो मर्द और ज़ियादा।

मर्दानगी को थाम के बीमार चल पड़े,

बूढ़े-जवान, नाकिसो-लाचार चल पड़े;

मर्दानगी के बाँस पे ही टाँग के झंडे,

करके वतन की देख-रेख यार चल पड़े।

मुकेश पाण्डेय

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