16 दिसंबर,1971, इसी दिन संघर्ष और पीड़ा की लंबी दास्तान के बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने अभूतपूर्व विजय दर्ज की थी और भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष ढाका में पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी के नेतृत्व में लगभग 93 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। इसके साथ ही, स्वतंत्र भारत के इतिहास में हमेशा के लिए एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया था।
आज करीब सोलह करोड़ लोगों का बांग्लादेश अपनी आजादी की अद्धर्-शताब्दी मना रहा है। बांग्लादेश ने विगत पांच दशक में ऐसा सफर तय किया है कि इस्लामाबाद के तथाकथित लोकतांत्रिक नेतृत्व को ढाका के नेतृत्व से ईष्र्या होने लगी है। बांग्लादेश की निर्वाचित सरकार पूर्ण स्वतंत्र है और सेना उसके अधीन है। आज बांग्लादेश का लोकतंत्र फौज नियंत्रित पाकिस्तानी लोकतंत्र को चिढ़ा रहा है। पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश का जन्म, दोनों घटनाओं से यह सच्चाई भी रेखांकित हुई है कि कोई धर्म-मजहब किसी भी बहुभाषी-बहुजाति-बहुसंस्कृति देश को लंबे समय तक अखंड नहीं रख सकता। धर्म के इतर अन्य कारक भी हैं, जो देश-राष्ट्र को एकजुट रखने में भूमिका निभाते हैं।
बांग्लादेश का जन्म निश्चित ही लंबे त्रासद अनुभवों का सुखद अंत रहा है। एक भावनात्मक रिश्ता मेरा इस सुखद पटाक्षेप के साथ है। पांच दशक पहले मैं एक युद्ध संवाददाता के रूप में इसकी प्रसव पीड़ा का साक्षी रहा हूं। मई 1971 से लेकर जनवरी 1972 तक तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों और बांग्ला मुक्ति वाहिनी के अथक स्वतंत्रता संघर्ष को त्रिपुरा, कुमिल्ला, जैसोर, खुलना व ढाका से मैंने कवर किया था। वहीं से हिंदी की विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखता रहता था। तब बांग्लादेश से बिल्कुल सटे अगरतला के गेस्ट हाउस में भी महीनों रहा था। आज जब यह देश अपनी स्वतंत्रता की अद्धर्शती का ऐतिहासिक उत्सव मना रहा है, तब सहज ही युद्ध क्षेत्र की कुछ स्मृतियां आंखों में सजीव हो उठी हैं। जब मुक्ति वाहिनी के लड़ाका घायल अवस्था में अगरतला गेस्ट हाउस में शरण लिया करते थे, छापामार लड़ाई के लिए सीमा पार से आया-जाया करते थे। एक रात मुजीबुर्रहमान के बड़े बेटे और भावी प्रधानमंत्री शेख हसीना के भाई शेख कमाल को मेरे साथ ठहराया गया था। कितनी ही कहानियां उन्होंने तत्कालीन सेनाध्यक्ष याह्या खां की फौज के जुल्म की सुनाई थीं। मुझे याद है, बंगबंधु के एक करीबी सहयोगी शम्सुल हक ने तो भारत विभाजन को भारतीय उपमहाद्वीप के ‘मानव भूगोल के साथ बलात्कार’ की टिप्पणी से परिभाषित किया था।
कैसे भुलाया जा सकता है, सीमा पार के बांग्ला विस्थापितों की उमड़ती लहरों को; उखड़े-उजड़े-टूटे-बिलखते लोग; खून में सने और भूख से रोते बच्चे; भविष्य के प्रति सशंकित मानवता। प्रसिद्ध अभिनेत्री काबुरी चौधरी भी यहीं मिली थीं, जिन्हें बचाकर अगरतला से मुंबई भेजा गया था। ऐसी त्रासदीपूर्ण घड़ियों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अदम्य साहस को कैसे भुलाया जा सकता है? प्रधानमंत्री तब त्रिपुरा की यात्रा पर थीं। विस्थापितों के शिविरों को देखना चाहती थीं, इसके लिए सुरक्षा एजेंसियां तैयार न थीं, क्योंकि पाक सीमा से सटे मार्ग से गुजरना पड़ता। चारों तरफ दुश्मन फौज थी, लेकिन इंदिरा गांधी के संकल्प के सामने सभी को झुकना पड़ा। उनका काफिला शिविरों की तरफ चल पड़ा। हम पत्रकार भी साथ हो लिए। सरहद पर तैनात पाक सैनिक दिखाई दे रहे थे। कुछ भी अनहोनी घट सकती थी। अंतत: प्रधानमंत्री ने विस्थापितों को संबोधित किया और लौटी भी उसी मार्ग से, संध्या के धुंधलके में।
जैसोर व खुलना में क्षत-विक्षत शवों के अंबार ने हम देशी-विदेशी पत्रकारों को हिलाकर रख दिया था। बलात्कार की अंतहीन गाथाएं सुनने को मिली थीं। चल-अचल संपत्ति के विध्वंस के मंजर देखे, खेत-खलिहानों को जलते देखा। भूख की चीत्कार सुनाई दी और ठंड में ठिठुरती अद्धर्नग्न देहें मिलीं। दो दफे मौत से मेरा भी सामना हुआ। एक बार अखोड़ा बॉर्डर पर पाक रेंजर की गोलियों से घिर गया था, पेड़ की ओट और सीमा सुरक्षा दल ने मुझे बचाया था। 16 दिसंबर से पहले जैसोर-खुलना क्षेत्र में मैंने और दो जापानी पत्रकारों ने दुस्साहस किया था। चेतावनी के बावजूद हम युद्ध-रेखा की तरफ बढ़ गए थे और क्रॉस फायर (भारत-पाकिस्तान) में फंस गए थे। एक भारतीय टैंक की वजह से हमारी जान बची थी और हमें युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित बाहर निकाला गया था। बाद में सैन्य अफसरों की डांट का सामना करना पड़ा था।
मैं आजाद होते ढाका का साक्षी हूं। प्रसिद्ध हिंदी कवि व संपादक रघुवीर सहाय के साथ बांग्ला के प्रसिद्ध कवि व स्वतंत्र देश के राष्ट्रीय कवि जसीमुद्दीन से मुलाकात की थी। बांग्लादेश में बसे लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता मोनी सिंह और लेखिका लैला समद के इंटरव्यू लिए थे। ढाका विश्वविद्यालय में पाक फौजों का कहर देखा था।
जनवरी में विमान से कोलकाता लौटते समय स्टेट्समैन के पत्रकार सान्याल टकरा गए थे। वह भी लंबे समय से तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के संकट और संघर्ष को कवर कर रहे थे। उन्होंने बताया था कि आजाद बांग्लादेश में अब भी मजहबी कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हैं। उन्होंने आशंका जाहिर की थी कि मुजीबुर्रहमान का जीवन लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रहेगा। नव राष्ट्र के जन्म के सिर्फ चार वर्ष की अवधि में आशंकाओं से घिरी उनकी भविष्यवाणी कितनी सटीक निकली! पुत्री शेख हसीना और उनकी बहन को छोड़, बंगबंधु परिवार का हिंसक अंत कर दिया गया। मैंने उनके उस निवास को देखा था। सामान्य सा घर था। इंदिरा गांधी ने मुजीबुर्रहमान को सलाह दी थी कि वह सरकारी निवास में रहें, इस छोटे से मकान में वह और उनका परिवार सुरक्षित नहीं हैं, मगर बंगबंधु का अपने लोगों पर अटूट विश्वास था। चंद सैन्य अधिकारियों ने उनके साथ विश्वासघात कर दिया।
पिछले दिनों बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों की हिंसक हरकतें दिखाई दी हैं। कट्टरपंथी तत्वों की वजह से पिछले कई वर्षों से प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन भारत में जीवन बिताने को अभिशप्त हैं। ऐसी घटनाओं से बांग्लादेश के लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर ग्रहण लगता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करेंगी और अपने पिता बंगबंधु के धर्मनिरपेक्ष ‘सोनार बांग्लादेश’ के स्वप्न को खंडित नहीं होने देंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)