‘जनता का मतलब विपक्ष होता है’।
यह एक नरेटिव है जिसे सतत गढ़ा गया है खास तौर पर वामपंथी धड़े के हाथों। सरकार या सत्ता के खिलाफ कुछ भी बोलते ही आप ‘जनता’ हो जाते हैं यह सस्ती समझ इसी गढ़े गये नरेटिव का दीर्घकालिक नतीजा है।
लेकिन यह बात फंडामेंटली ग़लत है क्योंकि उसी जनता ने उसे जनादेश दिया है। जनता का मतलब जनता होता है, जो कि लोकतंत्र में वोट देकर अपने पसंद के लोगों को संसद भेजती है, और सरकार चुनने का रास्ता बनाती है इसलिए वह कभी विपक्ष हो ही नहीं सकती : वह एक “पक्ष” है।
यहां यह देखना दिलचस्प हो जाता है कि कैसे वामपंथी राजनैतिक एजेंडे को ‘देश की आवाज’.. ‘जनता की आवाज’ जैसे जुमलों में न सिर्फ बदला जाता है बल्कि एक पूरे कालखंड के दौरान सामाजिक-राजनैतिक विमर्शों में इसे बखूबी स्थापित भी कर लिया जाता है।
उछल के सत्ता का विरोध कर देने भर से देश का लाल और जनता का लाउडस्पीकर हो जाने के सस्ते शौक इस बात के उदाहरण हैं। तनिक गंभीरता से कहा जाय तो… अगर आप सत्ता के खिलाफ हैं तो आप निष्पक्ष हैं के भाव का स्थापन जो देश में 2014 के बाद और मजबूत किया गया।
इसी धड़े के वाममार्गी मीडिया कामगारों ने पत्रकारिता के नरेटिव को गढ़ते हुए इसी बात को स्थापित करने का प्रयास किया और कहते रहे कि : ‘सत्ता के विरोध में बोलना, रहना ही निष्पक्षता है’।
यह बात भी सैद्धांतिक तौर पर ही गलत है। बहुत साधारण सी बात है, किसी भी पक्ष (सत्ता) के विरोध में बोलना मात्र एक ‘पक्ष’ हुआ, निष्पक्ष नहीं।
अब जब यह सब कुछ इतना आसान है और समझ में आ भी रहा है तो भी ऐसा होता क्यों आया यह सवाल जरूरी हो जाता है।
उसकी एकमात्र वजह है वामपंथी दर्शन का डीएनए जो अपने जन्म के बाद तत्कालीन फ्रांस की सत्ता के विरोध में “बाएं” बैठा और वामपंथ, लेफ्ट कहलाया।
अब चूंकि भारत में वामपंथ विशुद्ध आयातित विचारधारा है तो वह यहां भी उन्ही शब्दों, अवधारणाओं और विचारों के साथ आया और आज़ादी के बाद से अभी बीते 2014 तक सत्ता के साथ रहते हुए भी उन्ही आयातित जुमलों को ढोता रहा।
जबकि सत्य यह है कि 2014 में भारत में दक्षिणपंथ नहीं…. भारतीय संदर्भ में हमेशा सत्ता के खिलाफ खड़े रहे और सच्चे स्वभावगत अर्थों वाले वामपंथ…. यानी राष्ट्रवाद की सत्ता को जनादेश मिला। जो देश के सर्वहारा, आदिवासी, किसान, वंचितों, मूलनिवासियों की आवाज है।
मजे की बात यह है कि इन झूठे और कारोबारी जुमलों को कुछ इस तरह गढ़ा और स्थापित किया गया है कि विमर्शों की महफ़िलों में… कुछ नादान कबूतरों की तरह शौक़िया इन्ही नरेटिव के दानों को चुगते दिखते हैं। इससे बचना चाहिए।
जनता शब्द की ठीकेदारी करते आये इस तरह के गिरोही जुमलों से अब बाज आना चाहिए गिरोहों को क्योंकि अगर जनता हमेशा विपक्ष होती है : तो जनता… पक्ष कब होती है? इस सत्य को जानिये, वह एक पक्ष ही होती है।
- सत्ता के विरोध करते हुए आप खुद एक पक्षकार हैं, इसे चोकर के जनता की आवाज, देश की पुकार वाली तथाकथित निष्पक्षता न बताया करिये। पत्रकारिता, संवाद, विमर्शों की ऐसी सस्ती समझ से बाहर निकलिए।
(अवनीश पी. एन. शर्मा)