31 मार्च को पाकिस्तान के नए वित्तमंत्री हम्मद अज़हर द्वारा भारत से कपास, धागे व चीनी खरीदने की घोषणा क्या की गयी कि पिछले कुछ दिनों से भारत के साथ साथ पाकिस्तान की स्थापित मीडिया व सोशलमीडिया पर एक झंझावात आ गया है! यह एक ऐसा उठा झंझावात है जिसने दोनो तरफ की सरकारों को उनके समर्थकों के द्वारा लगाई गयी दावानल में झुलसा दिया है। यहां पाकिस्तान में तो लगी आग समझ मे आती है क्योंकि भारत की मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने से आक्रोशित, विरोध में वहां की सरकार, पिछले 7 दशकों से उन को चलाने वाली ‘इस्टेबलिशमेंट’ (पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व) व विशेष रूप से उसके प्रधानमंत्री इमरान खान, नैराश्य व आक्रोश में इतने विषाक्त हो गये कि उन्होंने पाकिस्तान को न सिर्फ भारत का संपूर्ण बहिष्कार करने की नीति पर चला दिया बल्कि इमरान खान ने अपने भाषणों व वक्तव्यों से भारत व हिंदुओं, विशेषतः प्रधानमंत्री मोदी जी के विरुद्ध, पाकिस्तान के जनमानस में घृणा के भावों को खूब उबाल दिया। यही नही, घृणा व विच्छिप्ता के इस विषैले वातावरण को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित किये जाने को इमरान खान ने शासकीय समर्थन भी प्रदान किया था। अब जब नीति के स्तर पर कोई इतना अतिरेक हो जाए तब उसे तुनुकृत करने के प्रयास में ऐसे ही तीव्र प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है।
लेकिन साथ ही यहां पाकिस्तान की इमरान खान की सरकार के सापेक्ष, पाकिस्तान द्वारा भारत से व्यापार करने के निर्णय को लेकर, भारत की मोदी जी की सरकार पर उसके ही समर्थकों के तंज और तीव्र प्रतिक्रिया आना एक बड़ा असमंजस कारक है। यहां समझा जा सकता है कि भारत के मोदी सरकार के समर्थकों की इस तरह की प्रतिक्रिया आने का कारण शायद यही है कि वे या तो वैश्विक जगत की राजनीति व कूटनीति की गंभीरता से अवगत नही है या फिर उन्होंने पूरी घटना को बड़े संकीर्ण अर्धव्यास में रह कर समझा है।
निसंदेह यह जो विगत कुछ दिनों में हुआ है वह न सिर्फ महत्वपूर्ण है बल्कि विचारणीय भी है, इसलिये इसकी मीमांसा, पूर्व में हुई घटनाओं और उसके पीछे के कारणों को बिना समझे नही की जा सकती है।
जो आज वर्तमान की उथल पथल दिख रही है उसके मूल में 5 अगस्त 2019 को भारत की सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर से धारा 370 समाप्त करने का निर्णय है। इसी निर्णय के साथ किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए भारत की सेना को जम्मू कश्मीर के अंदर, लाइन ऑफ कंट्रोल और पाकिस्तान से मिली अंतराष्ट्रीय सीमाओं पर भारी संख्या में तैनात करा दी गयी थी। पाकिस्तान की सीमा पर यह स्थिति बनी ही हुई थी कि मई/जून 2020 को लद्दाख की चीनी सीमा के पास गलवान घाटी की घटना हो गयी और इसी के साथ भारत और चीन की सीमाएं गर्म हो गयी। जून 2020 के बाद से, भले ही भारत, कूटनैतिक तौर पर चीन के विरुद्ध अंतराष्ट्रीय समर्थन जुटा रहा था लेकिन उसके साथ, सीमा पर सामान्य स्थिति फिर से बनाये रखने के लिए चीन से वार्ताएं भी कर रहा था। भारत की चीन से वार्ताएं भले ही एक मनोवैज्ञानिक युद्ध का हिस्सा थी लेकिन वह महत्वपूर्ण थी क्योंकि भारतीय सेना को पाकिस्तान और चीन दोनो ही सीमाओं पर लंबे समय तक, किसी भी स्थिति के लिए लगातार तैयार रखना न सिर्फ लॉजिस्टिक रूप से दुरूह था बल्कि वित्तीय रूप से भारत पर भारी भी पड़ रहा था। यहां यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि शेष विश्व की तरह भारत भी कारोना की विभीषका से ग्रसित था और भारत की अर्थव्यवस्था विराम की स्थिति में आ गयी थी।
चीन ने जब भारत की सीमाओं पर घुसने की कोशिश की थी तब उसकी भारत से पूर्णरूपेण युद्ध करने की कोई मानसिकता नही थी, वह पूर्व के भांति अतिक्रमण कर, कब्जाई भूमि पर बैठ जाना चाहता था। इस स्थिति में दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान की सेना ने गिलगित बाल्टिस्तान के क्षेत्र में अपनी गतिविधियां बढ़ा दी थी। भारत का चीन से हो रहे सीमा विवाद को पाकिस्तान एक अवसर समझ, दोनो देशों के बीच सीमित युद्ध की अभिलाषा संजोए हुआ था लेकिन भारतीय नेतृत्व की प्रतिघात्मक आक्रमकता व अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प की चीन के विरुद्ध असहिष्णुता की नीति के कारण वह संभव नही हो सका। नवंबर में अमेरिका में बिडेन द्वारा राष्ट्रपति के चुनाव जीतने के बाद, जहां चीन को यह आशा थी कि बिडेन की चीनी नीति ट्रम्प से तरह नही होगी वही पर पाकिस्तान को अमेरिका की नई बनी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस पर बड़ा विश्वास था। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित कमला हैरिस, भारत की राष्ट्रवादी मोदी सरकार की आलोचक व भारतीय विपक्ष की प्रिय होने के साथ जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने पर मुखरित रही है।
पाकिस्तान को यह आशा थी कि कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनने के बाद वो कश्मीर के मुद्दे पर, पूर्व की तरह भारत को कठघरे में खड़ा कर, पाकिस्तान के कश्मीरी कथानक का समर्थन करेंगी। किंतु शीघ्र ही अमेरिका से संकेत मिलने लगे कि बिडेन प्रशासन की चीनी नीति, पूर्व से ज्यादा भिन्न नही होगी और अमेरिकी प्रशासन, ट्रम्प की तरह, भारत को एशिया पेस्फिक क्षेत्र में अपना सामरिक साथी समझता है। जब तक चीन और पाकिस्तान वाशिंगटन से निकल रहे संकेतो को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे तब तक दिसंबर की सर्दी आगयी और चीन के पास, वहां उस स्थिति में बने रहना संभव नही रह गया था। उस के बाद एक तरफ चीन बिना अपने मान पर कालिख लगवाए, लाज बचाते हुए, भारत से फंसी हुई स्थिति से निकलना चाहता था वही पर पाकिस्तान भी, चीन की तरफ से भारत से युद्ध को टाले जाने से सशंकित हो रहा था। पाकिस्तान की कश्मीर को लेकर विदेश नीति जहां उराष्ट्रपति कमल हैरिस के समर्थन पर आश्रित थी वही पर अफगानिस्तान में शांति बहाल व अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से शांतिपूर्ण वापसी में अपनी भूमिका को, अमेरिका के लिए आवश्यक समझने पर टिकी हुई थी, जो जनवरी 2021 आते आते टूट गयी। एक तरफ पाकिस्तान की विदेश नीति के प्रमुख तत्व निष्क्रिय निकल गए थे वही पर सऊदी अरब व यूएई ने पाकिस्तान को दिये गए 3 बिलियन डॉलर को वापस मांग कर, उसे कंगाली की तरफ धकेल दिया था। अपनी असफलता और टूटती हुई अर्थव्यवस्था के दबाव में, पाकिस्तान के पास कोई ऐसा कोना नही बचा था, जहां से वह कोई किसी दुस्साहसिक आक्रमकता का विधान कर सके।
एक तरफ चीन और पाकिस्तान की अपनी अपनी विषमतायें थी वही पर भारत का भी नवम्बर 2020 से ही यह प्रयास था कि पाकिस्तान व चीन दोनो की ही सीमाओं पर भारतीय सेना को रेड अलर्ट पर न रहना पड़े। यहां, कहने को या फिर दम्भ के अधीन हम लोग यह कह सकते है कि भारत एक साथ दोनो सीमाओं पर लड़ सकता है लेकिन मैं समझता हूँ कि व्यवहारिकता में हम सिर्फ लड़ सकते है। भारत दोनो ही तरफ की सीमाओं पर, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व ‘कांग्रेस-वामी-इस्लामिक’ द्वारा प्रयोजित किसान के नाम पर खालिस्तानी आंदोलन से भारत को आंतरिक रूप से रक्तरंजित करने के प्रयास के बीच, युद्ध मे विजित होने की संभावना शून्य के बराबर भी नही थी। भारत को लाख अमेरिका व अन्य देशों का सहयोग मिलता लेकिन युद्ध भारत को अपनी सीमाओं व अपने अंदर ही करना था।
भारत को, या यह कह लीजिए मोदी जी की सरकार को, ट्रम्प के जाने के बाद, बिडेन के अमेरिका के राष्ट्रपति बन जाने की उतनी चिंता नही थी जितनी भारत व हिन्दू विरोधी कमला हैरिस की उपराष्ट्रपति बन, अमेरिकी तंत्र में बढ़ती पकड़ की थी। वैश्विक कूटनैतिक जगत में यह सभी मान रहे है कि अमेरिका के राष्ट्रपति भवन, वाइट हाउस में विराजमान बिडेन, एक एक्सीडेंटल टूरिस्ट है जब की वाइट हाउस के गलियारों के पीछे से, ओबामा के आशीर्वाद से कमला हैरिस ही सत्ता की केंद्र बनती जारही है। अब विश्व राजनीति में अमेरिका की उपराष्ट्रपति पर पदासीन ऐसा व्यक्तित्व बैठ प्रभावशील हो गया हो जो न सिर्फ चुनाव से पहले अपनी भारतीय व हिन्दू जड़ों का तिरस्कार कर, ‘ब्लैक बैप्टिस्ट’ के नाम पर राजनीति करी हो और 2014 के बाद से भारत में मोदी जी के नेतृत्व बनी राष्ट्रवादी व हिंदुत्व की पताका ओढ़े सरकार के प्रति शत्रुकारी दुर्भावना से पीड़ित व जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने की प्रमुख विरोधी अभिव्यक्ति रही हो, तो उसका संज्ञान लेते हुए, भारत का वश्य हो कर, संवेदनशील व जागरूक राष्ट्र, ‘गुड कोप’ की भूमिका में कूटनीति खेलना, एक व्यवहारिकता थी।
जनवरी 2021 में, बिडेन द्वारा अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में शपथ लेने पर, भारत ने इसी औचित्य में, चीन से जल्दी सीमा विवाद पर विराम लगा, विश्व को पुनः एक बार, पाकिस्तान से सामान्य सम्बंध बनाये रखने की अभिलाषा को प्रदर्शित करने को प्राथमिकता दिए जाने का निर्णय लिया था।
इसी बीच, भारत व चीन के बीच सीमा विवाद पर बनी विस्फोटक स्थिति को शांत किये जाने के लिए हुये समझौते की घोषणा से करीब 10 दिन पहले ही, अमेरिका के नए बिडेन प्रशासन का ध्यान अपनी तरफ करने के लिए पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने, खैबर-पख्तूनख्वा के रिसालपुर में पाकिस्तान वायु सेना (पीएएफ) के असगर खान अकादमी में स्नातक समारोह को संबोधित करते हुये बोला कि ‘पाकिस्तान और भारत को कश्मीर मुद्दे को जम्मू-कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप ‘गरिमापूर्ण और शांतिपूर्ण तरीके’ से हल करना चाहिए’। भारत ने कूटनैतिक भाषा मे, जनरल बाजवा का इस वक्तव्य को कुटनातिज्ञ छल के रूप में लिया, जिसका उद्देश्य बाइडेन प्रशासन को यह दिखाना था कि हम(पाकिस्तान) भारत के साथ शांति चाहता हैं लेकिन वह तैयार नहीं है।
इसी पृष्ठभूमि पर 12 फरवरी को भारत के रक्षामंत्री ने भारत सहित विश्व को बताया की भारत और चीन के बीच सीमा पर हुये विवाद को विराम देते हुए समझौता हो गया है। भारत चीन सीमा विवाद पर विराम लगने के कुछ ही दिनों बाद यह समाचार आया की भारत व पाकिस्तान डीजीएमओ ने सीमा पर, 2003 में हुई संधि के आधार पर, सीमाओं पर शांति बनाने की सहमति हों गयीं है। भारत और पाकिस्तान की सीमाओं पर गोलीबारी रोकने पर हुआ समझौता, भारत चीन सीमा विवाद पर हुये समझौते से उपजा था। इसका एक फल यह अवश्य हुआ कि इन समझौतों से तीनों ही देशों को अपनी सीमाओं के साथ, उनके यहां आंतरिक रूप से उपजी ज्वलंत वस्तुस्थिति को शांत करने का अवसर मिल गया।
पुष्कर अवस्थी
संपादक विचार
राष्ट्र इंडिया