मैं यह मानता रहा हूँ कि भारत मे कोई भी चुनाव, वह चाहे लोकसभा का हो, विधानसभा का हो या मोहल्ले का, हमेशा से ही उसका अपना एक चरित्र होता है जिसपर भले ही गाहे बगाहे मतदाताओं की उदासीनता अपना डंक मारती रही हो, लेकिन 20 वीं शताब्दी में हुए इन चुनावों के परिणामो का भारतीय समाज पर इस चरित्र का प्रभाव एकाकी ही रहा है। हर नया चुनाव अपने परिणामो में कुछ नयापन तो लाता रहा है लेकिन वह परिणाम मूलभूत परिवर्तन का द्योतक कभी नही रहा है। मैं समझता हूँ उसका कारण यही रहा है कि भले ही चुनाव का चरित्र पूर्व से भिन्न दिखता रहा हो लेकिन परिणामो ने उसे भिन्न नही होने दिया है। यह, खाने की मेज पर परोसी हुई अरहर की दाल की तरह है जो, नित्य नए बर्तन में, नए छौंक डाल परोसी जाती है लेकिन दाल वही होती है। यहां पर, आपातकाल के बाद हुये 1977 के लोकसभा व विधानसभा के चुनावों को मैं एक अपवाद स्वरूप मानता रहा हूँ।
अब, 2021 के वर्तमान में मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि कमोवेश, स्वतंत्र भारत में हुए 1952 के प्रथम चुनावो के बाद से अभी तक जो तारतम्यता बनी हुई थी, वह टूट चुका है। उसने अपनी धारा बदल दी है। इस धारा का बदलाव 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव से हुआ है क्योंकि इस चुनाव का विशिष्ट चरित्र जो राष्ट्रवादिता व हिंदुत्व से अलंकृत हुआ था, उसने परिणामों में भी बदलाव किया है। स्वतंत्र भारत मे पहली बार, चुनाव के परिणामो ने भारतीय समाज व उसके तंत्रों को मूलभूत रूप से प्रभावित किया था। इसका परिणाम यह हुआ है कि 2017 के उत्तरप्रदेश के विधानसभा व 2019 के लोकसभा के चुनावों व उसके परिणामो ने भारत के ही चरित्र में परिवर्तन को स्थायित्व प्रदान करने की तरफ अग्रसारित कर दिया।
आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत और उसके समाज के चरित्र में जो राष्ट्रवादिता व हिंदुत्व के अमृतपान से मूलभूत परिवर्तन हो रहा है और जिसकी, 21वीं शताब्दी में घनिकरण होने की अभिलाषा एक बड़ा भारतीय जनमानस कर रहा है, उसके समृद्ध होने का काल निकट आरहा है। मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के उपसंहार के लेखन की प्रारंभिक पंक्तियां बंगाल 2021 के चुनावों के परिणाम से लिपिबद्ध होंगी।
आज बंगाल में दूसरे चरण का चुनाव प्रारम्भ हो चुका है और अभी तक जो बंगाल की धरती से स्पंदन मिले है, वह मूलभूत परिवर्तन को दिशा प्रदान कर रही है। आज, नन्दीग्राम में ममता बनर्जी का भी चुनाव है और उसके परिणामो को लेकर दिल्ली की लुट्येन्स लॉबी से लेकर समाज के विभिन्न अंचलों में उत्सुकता है। यह एक विचित्र स्थिति है कि प्रदेश की लगातार दो बार रही मुख्यमंत्री व इस्लामिकपरस्त धर्मनिरपेक्ष गिरोह की प्रथम पंक्ति की नेत्री पर सट्टा यह लग रहा है कि वह अपनी कर्मभूमि से जीतेंगी या नही!
मैं भले ही लेखन कार्य व सोशल मीडिया से दूर हूँ लेकिन फिर भी मेरे कान और आंख बंगाल पर ही लगे हुए है। वहां से मुझको जो सूचनाएं व लोगो के व्यक्तिगत अनुभवों प्राप्त हो रहे थे, उस आधार पर कल तक मेरा आंकलन था कि ममता बनर्जी को नन्दीग्राम जीतने में एड़ी से चोटी तक दम लगाने के अलावा प्रदेशिक सरकारी तंत्र व तृणमूल कांग्रेस के असामाजिक तत्वों की आवश्यकता पड़ेगी। इसके बाद भी मुझे आशा थी कि ममता बनर्जी 5 से 7000 वोटों से ज्यादा नही जीत सकती है। हालांकि ज्यादातर लोग मुझे यही बता रहे थे कि इतने ही वोटों से उनके विरुद्ध बीजेपी से खड़े शुभेंदु अधिकारी जीतेंगे। इसके अलावा मेरा आंकलन था कि बीजेपी पिछले 2016 के चुनावों से बहुत बेहतर करेगी और 2 मई को बीजेपी कड़ी टक्कर देते हुए संभवतः उलटफेर कर दे नही तो 100 के लगभग सीटों पर अवश्य विजित होगी।
लेकिन कल शाम को जब यह ज्ञात हुआ कि चंडी जाप करने, गोत्र बताने व प्रथम चरण के चुनाव होने के बाद, द्वितीय चरण के चुनाव, विशेषरूप से स्वयं उनके चुनाव की पूर्वसंध्या पर, ममता बनर्जी ने सभी विपक्षी दलों से संगठित होकर, बीजेपी को हराने के लिए पत्र लिख कर चीत्कार की है, तो मैंने अपने पूर्व के आंकलन को निरस्त कर, रद्दी की टोकडी में डाल दिया है। मुझे यह दृढ़ विश्वास होता जारहा है कि न सिर्फ बंगाल से तृणमूल कांग्रेस की सरकार ध्वस्त होने जारही है बल्कि स्वयं ममता बनर्जी नन्दीग्राम से चुनाव, बड़ी स्पष्टता से हारने जारही है। मैं कोई ज्योतिष तो नही हूँ लेकिन कल रात व आज प्रातः लोगो से हुई वार्ताओं और अन्य स्रोतों से मिली सूचनाओं से सत्य का आभास लेते हुए यही लग रहा है कि आज नन्दीग्राम के चुनाव में ममता बनर्जी 20000(इससे ज्यादा भी) वोटों से हारेंगी व 2 मई 2021 को जो परिणाम आएंगे उसमे बीजेपी 170 सीटों के लगभग निकाल लेगी।
मैं बहुत दिनों बाद राजनैतिक आंकलन कर रहा हूँ लेकिन मेरी छठी इंद्री यही कह रही है कि 2 मई 2021 को न सिर्फ ममता बनर्जी गयी बल्कि उसके साथ कांग्रेसवामीस्लामिक इकोसिस्टम की रीढ़ की हड्डी भी टूटेगी।
पुष्कर अवस्थी
संपादक विचार
राष्ट्र इंडिया
प्रभावशाली लेखन
भाई , भारतीय मतदाता समझदार है यह आप २०१४ से समझ / देख भी रहे होंगे।साठ सत्तर साल सत्ता का प्रभाव , उनका नेटवर्क , उनसे लाभ उठाए लोग , उनकी आर्थिक ताकत , दुनिया भर के उनके संबंध , इन सबसे पार पाना आसान नहीं , इन प्रभावों को न्यूट्रलाइज करने के लिए सामने एक कलाकार चाहिए । आवाम को जेपी , वीपी , अटल के रूप में जैसे ही आशा की किरण दिखी , लोग साथ खड़े हो गए लेकिन यह लोग उस स्तर के कलाकार न थे ।यह रूमाल से कबूतर बनाना जानते थे लेकिन यहां तो एफिल टावर और ताजमहल को आंखों से ओझल करने की कलाकारी चाहिए थी। अब आपके पास कलाकार है। समय बहुत सीमित है , शो खत्म होने की घंटी बजे इससे पहले बिखरी चीजों को व्यवस्थित कर लिया जाए।