विवशता, जड़ता, किंकर्तव्यविमूढ़ता, भय, आपात और उहापोह कोरोना काल का स्थायी भाव है। अभी सर्वशक्तिमान भी शक्तिहीनता बोध से भरा दिख रहा है। कोरोना का यह दौर अपने साथ बहुत कुछ बहाकर ले जा रहा है। इस बैरी करोना ने हमारे दौर के सबसे सफल साहित्य-शिल्पी, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक तथा भारतीय जिजीविषा के रचनाकार ‘नरेंद्र्र कोहली’ को हमसे छीन लिया है। वास्तव में यह हिंदी संसार की अपूर्णीय क्षति है। वस्तुत: कोहली जी ऐसे शब्दयोगी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय विरासत और संवृद्ध परम्पराओं को समसामयिक संदर्भों में परिभाषित किया। वे अपनी रचनाओं से विषम परिस्थिति में भी भारतीयता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ज्योति जलाये रखने वाले साहित्य शिल्पी थे। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली जी की विशेषता रही है। उनके असमय निधन से हिंदी साहित्य के दिव्य, औदात्यपूर्ण अध्याय का अंत हो गया।
कापुरुषों के बारे में कचरा लिखकर माननीय हो जाने वाले दौर में नरेंद्र कोहली जी ने राम, कृष्ण, विवेकानंद जैसे महापुरुषों के बारे में नवीन दृष्टिकोण से लिखकर सम्मानीय होना स्वीकार किया। अपने विचारों को विदेशी चिंतकों और सिद्धांतों के अनुरूप गढ़ने के बजाय उन्होंने विशुद्ध भारतीय मनीषाओं से आबद्ध विचार को अपनाया और उसी अनुरूप लेखन को महत्व दिया। इस प्रकार कोहली जी भारतीय संस्कृति से सुवासित, देसी माटी की सौंधी सुगंध बिखेरने वाले देशज रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में संस्कृति का निक्षेप है, इतिहास की थाती है और आमजन की जिजीविषा का प्रत्युत्तर है। अत: नरेंद्र कोहली जी को याद करना न सिर्फ एक रचनाकार को याद करना है बल्कि अपने गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और अतीत को फिर-फिर जीना है’ यह सिर्फ एक श्रद्धांजलि नहीं बल्कि एक स्मृति कृतज्ञता भी है।

रचनाएं
नरेंद्र्र कोहली उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार तथा व्यंग्यकार थे। कुल मिलाकर यदि कहें तो वे एक मुकम्मल साहित्यकार रहे जिन्होंने हिंदी साहित्य की समस्त विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाया। वे अपने समकालीन साहित्यकारों से पर्याप्त भिन्न रहे हैं। साहित्य की समृद्धि तथा समाज की प्रगति में उनका प्रत्यक्ष योगदान रहा है। उन्होंने प्रख्यात कथाएं लिखीं, किंतु वे सर्वथा मौलिक रहे। वे आधुनिक हैं, किंतु पश्चिम का अनुकरण नहीं करते। भारतीयता की जड़ों तक पहुंचते हैं, किंतु पुरातनपंथी नहीं हैं। 1960 ई. में नरेंद्र्र कोहली की कहानियां प्रकाशित होनी आरंभ हुई थीं। इनमें वे साधारण पारिवारिक चित्रों और घटनाओं के माध्यम से समाज की विडंबनाओं को रेखांकित कर रहे थे। 1965 ई. के आसपास वे व्यंग्य लिखने लगे थे। उनकी भाषा वक्र हो गई थी और देश तथा राजनीति की विडंबनाएं सामने आने लगी थीं। उन दिनों लिखी गई अपनी रचनाओं में उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की अमानवीयता, क्रूरता तथा तर्कशून्यता के दर्शन कराए। हिंदी का सारा व्यंग्य साहित्य इस बात का साक्षी है कि अपनी पीढ़ी में उनकी जैसी प्रयोगशीलता, विविधता तथा प्रखरता कहीं और नहीं है। नरेंद्र्र कोहली ने रामकथा से सामग्री लेकर चार खंडों में 1800 पृष्ठों का एक वृहदाकार उपन्यास लिखा। कदाचित् संपूर्ण रामकथा को लेकर, किसी भी भाषा में लिखा गया, यह प्रथम उपन्यास है। यह उपन्यास है, इसलिए समकालीन, प्रगतिशील, आधुनिक तथा तर्काश्रित है। इसकी आधारभूत सामग्री भारत की सांस्कृतिक परंपरा से ली गई, इसलिए इसमें जीवन के उदात्त मूल्यों का चित्रण है, मनुष्य की महानता तथा जीवन की अबाधता का प्रतिपादन है। हिंदी का पाठक इसे पढ़कर, जैसे चौंक कर किसी गहरी नींद से जाग उठा। वह अपने संस्कारों और बौद्धिकता के द्वंद्व से मुक्त हुआ। उसे अपने उद्दंड प्रश्नों के उत्तर मिले, शंकाओं का समाधान हुआ। समकालीन लेखकों से वे भिन्न इस प्रकार हैं कि उन्होंने प्रचलित कहानियों को बिल्कुल मौलिक तरीके से लिखा। उनकी रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’  और ‘युद्ध’  नामक रामकथा श्रृंखला की कृतियों में कथाकार द्वारा सहस्राब्दियों की परंपरा से जनमानस में जमे ईश्वरावतार भाव और भक्तिभाव की जमीन को, उससे जुड़ी धर्म और ईश्वरवाची सांस्कृतिक जमीन को तोड़ा गया है। रामकथा की नई जमीन को नए मानवीय, विश्वसनीय, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। लगभग 60 वर्षों के अपने सक्रिय लेखन काल में कोहली जी ने सौ से अधिक अनमोल कृतियां दी हैं।

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साहित्यिक अवदान
नरेंद्र्र कोहली ने उन्नीस उपन्यास लिखे। उनके उपन्यासों के कथ्य का विस्तार सामाजिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक और पौराणिक संदर्भों को समेटे हुए है। यह विस्तार ‘साथ सहा गया दु:ख’, ‘क्षमा करना जीजी’ से लेकर ‘आत्मदान’, ‘अभिज्ञान’, ‘वसुदेव’, ‘महासमर’, ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ और ‘अभ्युदय’ तक पढ़ा जा सकता है। डॉ. कोहली की रचनात्मकता साहित्य की कई विधाओं में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। व्यंग्य साहित्य, कहानियां, यात्रा साहित्य के साथ-साथ आलोचना के क्षेत्र में भी नरेंद्र कोहली ने सार्थक हस्तक्षेप किया। राम कथा और महाभारत कथा की रचनात्मक अभिव्यक्ति उन्हें यशस्वी बनाती है। पौराणिक पात्रों और घटनाओं को अपनी वर्णन कला से वे रोचक तो बनाते ही हैं, प्रासंगिक भी बनाते हैं। लगभग चार दशकों की रचनात्मक यात्रा इन्हीं पौराणिक-सांस्कृतिक संदर्भों के युगानुकूल व्याख्या की यात्रा है।

नरेंद्र कोहली एक युगप्रर्वतक साहित्यकार थे जिन्होंने उच्च जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए लेखकीय कर्म अपनाया और कलम उठाई। उन्होंने पहली बार रामकथा को उपन्यास श्रृंखला के रूप में लिखा। तुलसी के बाद उन्होंने रामकथा को न केवल जनमानस में पहुंचाया अपितु राम के रूप में हमारे समय के अनुरूप एक आदर्श जननायक दिया। ऐसा जननायक जो हमारी संस्कृति को नई उंचाई दे सके। 1975 जब ‘दीक्षा’ प्रकाशित होकर आई थी तो इसका भरपूर स्वागत हुआ। भगवती चरण वर्मा, यशपाल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, डॉ. धर्मवीर भारती आदि ने इसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रामकथा को एकदम नयी दृष्टि से देखने वाली कृति कहा। भगवती चरण वर्मा ने लिखा- मैंने आपमें वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में लाती है। जैनेंद्र कुमार ने कहा- आपकी रचना उपन्यास से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कथा तक बढ़ जाती है।’

बाधाएं
इतनी बड़ाई जिस रचना को मिल रही थी, उस रचना के छपने में कितनी बाधाएं आयीं, इसे कम लोग जानते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकारों से मिली प्रशंसा ठीक उसी प्रकार थी जैसे जौहरी सिर्फ मोती परखता है, गोताखोर के असफल प्रयास नहीं। सच है कि प्रकाशन से पूर्व इस कृति को अत्यधिक उपेक्षा झेलनी पड़ी थी। उन दिनों ‘धर्मयुग’ ने न केवल नरेंद्र कोहली की ‘परिणति’ जैसी कहानियों को प्रकाशित किया अपितु ‘परिणति’ संकलन की समीक्षा भी प्रकाशित की। ‘बैठे ठाले’ में वे उन दिनों छाए हुए थे। पर विडंबना देखिए ‘मानस का हंस’ छापने वाले उसी ‘धर्मयुग’ ने ‘दीक्षा’ यह कहकर लौटायी कि हम ऐतिहासिक-पौराणिक उपन्यास छापने की स्थिति में नहीं हैं। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ को कुछ अंश भेजे तो लौटती डाक से लौट आए। यही नहीं, ‘दीक्षा’ की पांडुलिपि प्रकाशकों के द्वारे-द्वारे उपेक्षित होने को विवश हुई थी। इसी दीक्षा की पांडुलिपि सभी महत्वपूर्ण प्रकाशकों द्वारा लौटाई गयी थी। ‘पराग प्रकाशन’ उन दिनों आंरभ ही हुआ था। हताश होकर नरेंद्र कोहली ने प्रकाशक श्रीकृष्ण के समक्ष रामकथा ‘दीक्षा’ को अपना पैसा लगाकर छापने का प्रस्ताव दिया। श्रीकृष्ण ने पढ़ा और रामकथा को अपनी पूंजी से छापने को तैयार हो गए’ तब कहीं जाकर ‘दीक्षा’ छपकर पाठकों तक पहुंच पायी’

यहां प्रश्न उठता है कि आखिर कोहली जी को आसानी से प्रकाशक क्यों नहीं मिल पा रहा था? दरअसल उन दिनों हिंदी साहित्य, इतिहास और सामाजिक विज्ञान पर एक खास विचारधारा का वर्चस्व स्थापित था। उससे इतर रचनाओं को साहित्यिक श्रेणी का मानने पर भी प्रश्नचिन्ह था। इसलिए उसे अच्छा प्रकाशक नहीं मिलता था, न बेहतर आलोचक। इसका शिकार कोहली जी समेत भारतीय संस्कृति से आबद्ध रचनाएं देने वाले अनेक साहित्यकार हुए। इसके बाबजूद कोहली जी ने हार नहीं मानी और अपनी ऐसी जगह बनाई जो अन्यत्रों के लिए दुर्लभ है। इस मामले में कोहली जी वैचारिक खांचें को तोड़कर सीधे पाठकों के हृदय में पैठ बनाने वाले रचनाकार साबित हुए। अपने शुरुआती दिनों में कोहली जी भी प्रेमचंद, लेनिन, माओ, हो-ची-मिन्ह आदि से प्रभावित थे। किंतु जल्दी ही उन्हें यह भान हो गया कि प्रेमचंद को छोड़कर, ये सब विदेशी हैं और विदेशी चरित्रों के उभार से भारतीय सांस्कृतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त नहीं किया जा सकता है। अत: कोहली जी ने अपनी माटी के नायकों का ही पुनर्निर्माण किया और इसमें वे पूरी तरह सफल भी रहे।

कोहली जी अपनी रचनात्मकता के हर रूप में भारतीयता का अलख जगाते हुए चलने वाले रचनाकार थे। उन्हें भारत के कण-कण से इतना लगाव था कि वे साहित्य की समस्त विधाओं में भारतीय पौराणिक चरित्रों का संवहन करते चलते थे। एक साक्षात्कार में जब उनसे हिंदी नाटक के विकास पर प्रश्न किया गया तो उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि ‘भारतीय नाट्य संस्थान’, जिस पर नाटकों के उत्थान की जिम्मेदारी है, उसके अध्यक्ष इब्राहिम अल्काजी को हिंदी आती ही नहीं और वे विदेशी नाटकों के बल पर हिंदी नाटकों का भला कैसे कर सकते हैं? इस बात में सही मायनों में बहुत बड़ी सच्चाई है कि आजादी के बाद जो बड़े-बड़े विश्वविद्यालय और कला-साहित्य के संस्थान बने, उनमें ऐसे-ऐसे लोग चुन-चुनकर भरे गये जिन्हें भारतीय धर्म, संस्कृति और भारतीयता से दुराव था। ऐसे लोगों और संस्थानों ने भारतीय कला-साहित्य और संस्कृति का भला करने के बजाय उसका नुकसान ही किया। वरना जरा सोचकर देखिये कि सौ से अधिक उत्कृष्ट ग्रंथ रचने वाले नरेंद्र कोहली को भारतीय ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी के जैसे अच्छे पुरस्कारों से पुरस्कृत क्यों नहीं किया गया। दरअसल विश्वविद्यालय और साहित्य संस्थानों में एक खास वैचारिकी हावी रहने का यह दुष्परिणाम है। इसके शिकार नरेंद्र कोहली भी हुए। लेकिन मैं अक्सर यह कहता हूं कि विश्वविद्यालय विश्व नहीं है। इससे बाहर भी दुनिया है। यद्यपि नरेंद्र्र कोहली को शोधार्थियों और विद्यार्थियों के साथ-साथ आप पाठकों का यथेष्ट प्रेम मिला। यही कारण रहा कि उनकी महंगी पुस्तकों के भी दसाधिक संस्करण हाथों-हाथ बिके और देशभर में 200 से अधिक शोधार्थियों ने उनकी रचनाओं पर शोध किया है।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि हमारे समय में नरेंद्र कोहली ने ऐतिहासिकता, पौराणिकता, सांस्कृतिक बोध और रचनात्मक स्वतंत्रता के बीच जो संतुलन स्थापित किया, वह एक साहित्यिक मानक बन गया है। आस्था अपने कठिन समय में पुनर्नवता को कैसे संभव करती है, नरेंद्र्र कोहली इसके प्रमाण हैं। राम भारतबोध के पर्याय हैं और महाभारत जीवन का पर्याय है। नरेंद्र कोहली की कृतियां हमें यही संदेश देती हैं। हिंदी का विश्वविद्यालयी बौद्धिक जगत जब यह कहते हुए अघाता नहीं था कि महाकाव्यात्मकता और महावृतांतों के दिन लद गए, नरेंद्र्र कोहली जी ‘दीक्षा’, ‘महासमर’, ‘अभ्युदय’, ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ के द्वारा महावृत्तांत और महानायक की सातत्यता को संभव कर रहे थे। यह दुर्भाग्य है कि नरेंद्र्र कोहली की रचनात्मकता विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शोध से लगभग गायब ही रही है। विश्वविद्यालयों और विभागों में बैठे जलेस, प्रलेस के मानसपुत्रों ने जानबूझकर नरेंद्र कोहली जी के रचनात्मक अवदान से पाठ्यक्रमों और विद्यार्थियों का परिचय नहीं होने दिया। किंतु ‘फूल मरै पर मरै न बासु’- पुष्प का सुगंध अमर है, दीर्घजीवी है, सार्थक है। यही सार्थकता नरेंद्र कोहली होना है। इस प्रकार स्वभाव से सरल, व्यव्हार में कुशल और अनुशासन प्रिय डॉ. नरेंद्र कोहली का जाना हिंदी साहित्य से एक विशिष्ट सांस्कृतिक आभा का विदा हो जाना है। यह न सिर्फ साहित्य, अपितु संपूर्ण सांस्कृतिक आयाम हेतु अपूर्णीय क्षति है। उनकी भरपाई तो संभव नहीं लेकिन उनकी सासंकृतिक आभा ने प्रस्फुटित होकर जो मार्ग प्रशस्त किया है, उस पर चलकर साहित्य, समाज और भारत सबका नि:संदेह भला होगा। अत: जरूरत है अनवरत उनके मार्गों का अनुसरण कर आगे बढ़ते रहने की।

शिक्षा

यद्यपि कोहली जी के माता-पिता स्वयं बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, तथापि वे शिक्षा के महत्व से अवगत थे। इसलिए स्वयं कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद उनके अभिभावकों ने नरेंद्र कोहली की शिक्षा में कभी कटौती नहीं की। यही कारण है कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा का आरंभ पांच-छह वर्ष की अवस्था में देवसमाज हाई-स्कूल लाहौर में ही हो गया। उसके पश्चात कुछ समय स्यालकोट के गंडासिंह हाई स्कूल में भी शिक्षा पाई। 1947 ई. में देश के विभाजन के पश्चात  यह परिवार जमशेदपुर (बिहार) चला आया। यहां तीसरी कक्षा से पढ़ाई आरंभ हुई धातकीडीह लोअर प्राइमरी स्कूल में। चौथी से सातवीं कक्षा तक की शिक्षा न्यू मॉडल इंग्लिश स्कूल में हुई। अंग्रेजी का मात्र अक्षर ज्ञान हुआ, शेष सारी शिक्षा उर्दू माध्यम से हुई। आठवीं से 11वीं कक्षा की पढ़ाई मिसेज केएमपीएम हाईस्कूल जमशेदपुर में हुई। हाईस्कूल में विज्ञान संबंधी विषयों का अध्ययन किया। अब तक की सारी शिक्षा का माध्यम उर्दू भाषा ही थी। उच्च शिक्षा के लिए जमशेदपुर को-आॅपरेटिव कॉलेज में प्रवेश किया। 1961 ई. में जमशेदपुर को-आॅपरेटिव कॉलेज रांची विश्वविद्यालय से बीए आॅनर्स हिंदी कर, एमए की शिक्षा के लिए दिल्ली चले आए। 1963 ई. में रामजस कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी विश्वविद्यालय से 1970 ई. में पीएचडी या विद्या वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नगेन्द्र के निर्देशन में ‘हिन्दी उपन्यास : सृजन एवं सिद्धांत’ विषय पर उनका शोध था।

पुरस्कार एवं सम्मान

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राज्य साहित्य पुरस्कार 1975-76 (साथ सहा गया दुख) शिक्षा विभाग, उत्तरप्रदेश शासन,  लखनऊ। 
उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1977-78 (मेरा अपना संसार) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान,  लखनऊ।
 इलाहाबाद नाट्य संघ पुरस्कार 1978 (शंबूक की हत्या) इलाहाबाद नाट्य संगम,  इलाहाबाद।
उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1979-80 (संघर्ष की ओर) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान,  लखनऊ।
मानस संगम साहित्य पुरस्कार 1978 (समग्र रामकथा) मानस संगम, कानपुर।
श्रीहनुमान मंदिर साहित्य अनुसंधान संस्थान विद्यावृत्ति 1982 (समग्र रामकथा) श्रीहनुमान मंदिर साहित्य अनुसंधान संस्थान,  कलकत्ता।
साहित्य सम्मान 1985-86 (समग्र साहित्य) हिंदी अकादमी,  दिल्ली।
साहित्यिक कृति पुरस्कार 1987-88 (महासमर-1, बंधन) हिंदी अकादमी, दिल्ली।
डॉ. कामिल बुल्के पुरस्कार 1989-90 (समग्र साहित्य), राजभाषा विभाग, बिहार सरकार, पटना। 
चकल्लस पुरस्कार 1991 (समग्र व्यंग्य साहित्य) चकल्लस पुरस्कार ट्रस्ट, 81 सुनीता,  कफ परेड,  मुंबई।
अट्टहास शिखर सम्मान 1994 (समग्र व्यंग्य साहित्य) माध्यम साहित्यिक संस्थान, लखनऊ।
शलाका सम्मान 1995-96 (समग्र साहित्य) हिंदी अकादमी दिल्ली।
 साहित्य भूषण -1998 (समग्र साहित्य) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ।
व्यास सम्मान –  2012 (न भूतो न भविष्यति)।
पद्म श्री – 2017, भारत सरकार।

आजीविका
नरेंद्र कोहली ने बीए से पहले हिंदी की विधिवत शिक्षा भी नहीं ली थी किंतु पहली नौकरी दिल्ली के पीजीडीएवी सांध्य कॉलेज में हिंदी के अध्यापक के रूप में ही 1963 से 65 ई. के बीच की। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। दूसरी नौकरी दिल्ली के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में 1965 ई. में आरंभ की और 1 नवंबर 1995 ई. को 55 वर्ष की अवस्था में पूर्णकालिक लेखन कार्य हेतु स्वैच्छिक अवकाश लेकर नौकरियों का सिलसिला समाप्त कर दिया। उनका विवाह 1965 ई. में डॉ. मधुरिमा कोहली से हुआ था। कार्तिकेय एवं अगस्त्य नाम के उनके दो पुत्र हैं। श्रेष्ठ साहित्यकार होने के साथ-साथ वे एक श्रेष्ठ एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। उनका व्यक्तित्व एक सरल, सहृदय एवं स्पष्टवादी पुरुष का था।

मुकेश पाण्डेय

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