हम दोनों के ही नाम मोहम्मद हैं। मोहम्मद रियाज और गौस मोहम्मद। अम्मी-अब्बू ने बहुत सोच-समझकर ये नाम रखे थे। बचपन से ही जब कोई पूछता कि इनके नाम बताओ तो उनके मुँह से रियाज और गौस तो धीमे से निकलता था, लेकिन मोहम्मद कहते हुए उनकी छाती फूल जाती थी।

कोई कम्बख्त गैर मुसलमान इस जुनून को कभी समझ ही नहीं सकता। मदरसे में जिन बच्चों के नाम भी ऐसे थे, मौलवी खुश होकर दुआएँ देते थे। अब सुनो। कानपुर में जफर हयात हाशमी को अरेस्ट किया। उसकी बीवी उज्मा का बयान याद करो। क्या कहा था उसने? याद नहीं। तुम काफिरों की याददाश्त है ही ऐसी। हम बताते हैं।

टीवी पर उसने कहा था- ‘हमारे नबी अल्लाह के सबसे प्यारे हैं। हम उनकी शान में गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनके लिए एक मुसलमान अपने बच्चे का गला भी काट सकता है।’ कुछ समझे?

सबसे ताजा मिसाल दी है। कोई सूरा और आयत नहीं बताई है। बुखारी की किसी हदीस में नहीं गया हूँ। कानपुर का मसला तो अभी इसी महीने का है जनाब। तो ऐसा समझो कि आज चार दिन की जिंदगी दीन के काम आई। हमारी तालीम में यही बात सिखाई गई थी। यह हमारा नसीब था कि हमने अपनी आखिरत को आज ही सुधार लिया। कयामत के रोज जन्नत का सफर तय होगा।

दीन का पक्का मोमिन मुकदमे, जेल और फाँसी की परवाह कभी नहीं करता। वह छाती पर बम बाँधकर निकलता है। उसका कलेजा देखिए। दो दिन पहले हम ईद मुबारक के लिए बकरा बाजार गए थे। सवा लाख के बकरे, दो लाख के बकरे। वल्लाह।

तीन लाख में ऐसे मुबारक बकरे, जिनके सफेद बालों पर काले अरबी अल्फाजों में कोई इबारत उतर आई थी। हमने इसी छुरे को चमकाकर कहा था कि हम अपनी ईद पहले ही मना लेंगे। लाख-दो लाख बिगाड़ने की क्या जरूरत है। एक काफिर की औकात दो कौड़ी की। उसे ही हलाल करेंगे। हमने तय कर लिया था।

मथुरा में तुम ईदगाह के लिए कोर्ट-कचहरी में अगली दो पीढ़ी तक कागज लिए घूमते रहो। हमने एक कन्हैया को अभी और फिर गिरा दिया। अब बोलो? तुम्हें क्या पता कि हमने मदरसों में क्या पढ़ा? किस किताब का कौन सा हवाला मौलवी साहब ने हमें देकर हमारे भीतर हमारे दीन को पक्का किया।

वे किताबें किसने तैयार कीं, किसने लिखीं, किसने छापीं, किसने मंजूर कीं, पता है तुम्हें? और जो कमी उनमें रह गई थी उसे दिन में पाँच बार बुलाकर ठोक-बजाकर पुख्ता किया। दिन भर और जिंदगी भर की ये सारी कसरत होती क्यों है, तुम क्या जानो।

जिसके ख्वाबों में जन्नत न उतरी हो, वह सोच भी नहीं सकता कि जिंदगी कितनी बेमानी है। तुम अपनी औलादों को आईआईटी और आईआईएम वगैरह कराते रहना। ऊँचे पैकेज की नौकरियों का जश्न भी मनाते रहना। हमारे लिए वो सब दो कौड़ी का भी नहीं है।

मौलवी साहब ने हमें बताया कि बुतपरस्ती कितनी हराम है। मुशरिक होना कितना बड़ा गुनाह है। शिर्क में पड़े रहना कैसा अजाब है। एक मोमिन को चाहिए कि वह इनसे बचे और हिकारत से भरा घात में रहे। जब जहाँ मौका मिले सवाब कमाए।

आखिरत के दिन उसी का हिसाब होगा। काफिर दोजख में जलाए जाएँगे। मोमिन जन्नती होंगे। कन्हैया टेलर की दम तोड़ती चीखों के बीच आखिरी साँस के साथ ही हमारी जन्नत पक्की हो चुकी है जनाब। अब तो नई मशीनों से जब जाहिर हो गया है। कोई परदा नहीं रह गया है।

टेलर की दुकान में जाने के पहले नमाज से निकलते ही हमने तय किया था कि मोबाइल कौन चलाएगा और कौन काफिर पर पहला वार करेगा।

गौस का हाथ मोबाइल पर छुरे से ज्यादा साफ है। उसने रिकॉर्ड किया और जब कन्हैया मेरे सीने का नाप ले रहा था मैंने गौस को आँखों से इशारा किया कि बस अब कलमा पढ़के नाप दिया जाए! नए जमाने की इन मशीनों ने हमारे इरादों से परदा हटा दिया है। हम भी देखते हैं, आप भी देख सकते हैं।

हजारों मौलवी साहेबान की तकरीरों के वीडियो। उनमें हरेक मोमिन के लिए नुस्खे हैं। मिसालें हैं। नजीरें हैं। चार से कैसे चार-चार करना और आबादी को बेहिसाब करना, सुन लीजिए। बुतपरस्ती के खिलाफ कैसे डटे रहना, सुन लीजिए।

अपने वीडियो में हमने वजीरे आजम को ललकारा है। 2014 के बाद से यह ललकार अपने मकसद को हासिल करने तक हरेक मोमिन के जेहन में ठहरी हुई है, आपको मालूम है? और जो इत्तफाक न रखे, वह मोमिन नहीं, कम्बख्त काफिर है!

हम जानते हैं कि जावेद अख्तर अब खामोश रहेंगे। वे जुबैर भाईजान या तीस्ता आपा की अरेस्ट पर भले ही कुछ कहें। आरफा खानम को तसल्ली होनी चाहिए कि सब कुछ राख नहीं हुआ है, चिंगारियाँ सोई नहीं हैं, देख लीजिए उदयपुर से यह एक लपट निकली है।

राणा अयूब को ट्विटर पर बेसब्र नहीं होना चाहिए। हिंदुस्तान में कोई मुश्किल हालात नहीं हैं। यहाँ बहुत कुछ करने का स्कोप है। ढेरों मौके हैं। राहत इंदौरी तो अब नहीं रहे, मुनव्वर राणा साहब का एक शेर आ जाए तो सुकून मिले। वह हमारे जुनून को ताकयामत बरकरार रखेगा। वे जरूर इस कारनामे पर कुछ फरमाएँ!

मुझे मुलायम सिंह यादव याद आ रहे हैं। लालू यादव याद आ रहे हैं। और वे सब जो रमजान मुबारक में आकर इफ्तारी के दस्तरख्वान पर बगलगीर हुआ करते थे। टोपी हमसे ज्यादा उनके सिर पर फबती थी।

वो दौर फिर आएगा जब कोई हमें भी भटका हुआ कहेगा और हम पर दायर मुकदमा वापस लेने के एजेंडे लेकर चुनाव में उतरेगा। ऐसे लोगों को हम आधे जन्नती मानते हैं। उनका एक पाँव कुफ्र में अटका हुआ है। किसी दिन वह भी ईमान की रोशनी में आ जाएगा।

57 मुल्क और हिंदुस्तान में बीस करोड़ लोग जानते हैं कि हमने कुछ भी गलत नहीं किया, कोई गुनाह नहीं किया। हमने वही किया, जो हमारे लिए मुनासिब था।

बाहर वालों को अहसास भी नहीं होगा कि मदरसों में हमारी शान किस तरह बखान होगी। मोहल्लों में बच्चे-बच्चे हमें ऐसे याद करेंगे जैसे काफिरों की बस्ती में कोई आईएएस या आईपीएस बनकर नाम कमाता है। गाजी बनने का सवाब तो हम पा चुके हैं। मारे गए तो शहीद कहलाएँगे। मस्जिदों में हमारे चर्चे चलेंगे। जमातों की बैठकों और दावतों में अभी कोई और सब्जेक्ट ही नहीं होगा जनाब।

हमें मौलाना मोहम्मद साद याद आ रहे हैं, कोरोना के समय की एक तबलीग में उनकी जोरदार तकरीर सुनी थी। फरमा रहे थे कि मरने के लिए मस्जिद से बेहतर कोई जगह नहीं। हम कहते हैं कि मोमिन को जिंदा रहने के लिए हिंदुस्तान से बेहतर कोई मुल्क नहीं।

आप किसी भी गली से निकलकर कुछ भी कर सकते हैं। कहीं भी घुसकर किसी भी कन्हैया, किसी भी राम और किसी भी विश्वनाथ का काम तमाम कर सकते हैं, उसका घर लूटकर बरबाद कर सकते हैं। काफिर हसीनाओं के लिए क्या कुछ नहीं कर सकते!

जन्नत के रास्ते पर आगे बढ़ने का इतना स्कोप किसी इस्लामिक मुल्क में नहीं। वहाँ करने को कुछ रह ही नहीं गया है। अब सीरिया या अफगानिस्तान तो ईमान की रोशनी से तरबतर किए जा चुके हैं।

कुफ्र के अंधेरे में तो हिंदुस्तान रह गया है, जो आठ सौ सालों में भी इल्म का मतलब नहीं समझ पाया। यहाँ करने को बहुत कुछ है।आप लाख कहते रहिए कि यह आतंकवाद है। दहशत है।

दोहराते रहिए कि हमारे पुरखे हिंदू, बौद्ध या जैन काफिर थे। तारेक फतह के साथ जितना चाहे आप मजाक उड़ाते रहिए कि हम छोटे भाई का कुरता और बड़े भाई का पायजामा पहनते हैं। आप हमारी सफाचट मूँछों और अजीबोगरीब दाढ़ी पर खूब हँसते रहिए। हलाला पर हमारी हँसी उड़ाते रहिए। चार निकाह और चालीस बच्चों का रोना रोते रहिए। पंचर पुत्र और शांतिदूत किसे कहते हो, क्या हमें नहीं मालूम?

मगर याद रखिए कि हम पक्के ईमान वाले हैं। हमारे लिए दीन पहले है, दुनिया भाड़ में है।तुम क्या समझते हो, नुपूर शर्मा का नाम न आया होता तो क्या हम राजसमुंद की बकरा मंडी में बकरे का मोलभाव ही कर रहे होते। कतई नहीं जनाब।

सीएए, शाहीनबाग, किसानों का हंगामा, हिजाब, ज्ञानवापी, लाउड स्पीकर, यूपी के बुलडोजर मतलब हमारे लिए मुद्दों की कभी कमी नहीं होती। हमारे आलिम, अमीर और मौलवी साहेबान कुछ न कुछ नया निकाल ही लाते ताकि हम वह कर सकें, जिसके लिए हमें दिन में पाँच, हफ्ते में 35, महीने में 150 और साल में 1095 बार तैयार किया गया। सबक यह है कि बड़े मकसद मामूली मसलों से हासिल हो सकते हैं।

आखिर में काम की बात सुन लीजिए, पहले जुनून बड़ी खामोशी से हमारे जेहन में बहता है। हल्ला तो बहुत बाद में होता है। आपकी इंटेलीजेंस बकवास है। ऊपर वाला हमारे सेक्युलर सिस्टम को अब नई जिंदगी अता फरमाए।

उदयपुर की धान मंडी की गली में बहे कन्हैया नाम के काफिर टेलर के लहू को मत भूलना। मोदी को तो हमने डायरेक्ट वीडियो पर साफ समझा दिया है। आप भी समझदार हैं। हमारे नाम मालूम ही हैं-मोहम्मद रियाज और गौस मोहम्मद।

और हाँ, हमें दुआओं में जरूर याद रखना!

मुकेश पाण्डेय

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