पेरिस में मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून दिखाने के कारण एक टीचर की गला काटकर हत्या कर दी गई है। इतिहास और भूगोल के टीचर ने अपनी क्लास में मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून अपनी क्लास में दिखाया था। जिससे वहां के इस्लामिस्ट नाराज थे। मौके पर ही पहुंची पुलिस ने जब हत्यारे को पकड़ने की कोशिश की तो हत्यारा “धार्मिक नारे” लगाने लगा। बंदूक का भय दिखाकर आरोपी बच भी निकला था, लेकिन पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया।

एक निर्दोष आदमी की हत्या कर इस्लाम की शांति का संदेश दिया गया, यह सोचने और विचारने की बात है, ये इस्लामोफोबिया नहीं। अगर ठंडे दिमाग से सोचें तो केवल एक निर्दोष व्यक्ति ही नहीं मारा गया, यहां दो निर्दोष व्यक्ति मारे गए हैं। टीचर भी, और वह युवक भी जिसे धर्म के नाम पर इतना बहशी बना दिया गया है कि धर्मयुद्ध छेड़ने से पहले उसने अपनी जान की परवाह तक न की, परवाह की भी होगी तो उसे जान देना भी अल्लाह की नेक राह में एक कुर्बानी मात्र लगी होगी। बात केवल एक हत्या की नहीं है, पूरे रिलिजियस इंस्टिट्यूट की है, टीचर तो निर्दोष मारा ही गया लेकिन उस युवक के दोष पर विचार करने की जरूरत है।

The Islamic takeover of France has gone so far that even Macron noticed

आखिर वह युवक एक दिन में मानवबम नहीं बना होगा। वर्षों-वर्ष से उसके मन में धार्मिक जहर भरा गया होगा। ये युवक भी धार्मिक मशीनरी का शिकार हुआ है, वे लोग भी धार्मिक मशीनरी का शिकार हुए हैं जिन्होंने इसे इस स्तर तक पहुंचाया। ये बात समझ लेने की जरूरत है कि इसका नुकसान केवल बाकी कम्युनिटीज को नहीं होना, इसका सबसे अधिक नुकसान तो इस्लाम को ही होना है।

इतनी नफरत और घृणा लेकर स्वयं आप अच्छा जीवन कैसे जी सकते हैं? इस्लाम के नाम पर जो इतनी गंध मची हुई है, उसपर ठहरकर सोचने की जरूरत है, मैं इस बात में एकदम यक़ी नहीं रखता कि किसी धर्म विशेष में ही कोई दिक्कत है, लेकिन धर्म उपदेशकों के साथ जरूर दिक्कत है, जाकिर नाइक टायप, मौलवियों, कठमुल्लों ने आपके अंदर की सहिष्णुता को जन्म ही नहीं लेने दिया, बचपन से यही भरा गया कि हमारा धर्म ही श्रेस्ठ है, हमारा धर्म ही नेक है, हमारा भगवान ही भगवान है, हमारी परंपरा ही परंपरा है, बाकी सब मूर्ख हैं, उन्हें भी इस्लाम की राह पर लाओ, उनसे सम्बंध मत रखो। ऐसे अलगाववादी विचार कभी भी खतरनाक रूप धर सकते हैं, जैसा कि आज पेरिस में देखा गया।

ये कोई पहली और आखिरी घटना नहीं है। धर्म के नाम पर अभी और हजारों निर्दोष नागरिकों को जान देनी है। पर क्या इससे इस्लाम के निर्दोष नागरिक खुश रह पाएंगे? कभी नहीं। उन्हें भी इस्लामिक कट्टरता के कारण अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती, उनके विचार वही दकियानूसी रह जाते हैं, न उनकी औरतें आजादी से जी पातीं, न बच्चे प्रगतिशील बन पाते। इतनी संकुचित, सीमित, दकियानूसी सोच के साथ कोई कैसे खुश रह सकता है।

अगर सच में कोई इस्लाम से प्यार करता है, तो उसे उसमें सुधारों के लिए लड़ना पड़ेगा, आलोचनाएं झेलनी होंगी, बहिष्कार झेलना पड़ेगा, तभी वह अपनी कौम के लोगों का हित कर पाएगा। मौलवियों, कट्टरपंथियों, चरमपंथियों का विरोध करिए, और उन लोगों का भी जो आपके धर्म की आलोचना करने वालों को इस्लामोफोबिया कहते हैं। आपके धर्म में सुधार होगा तो इससे इस्लाम ही बढ़ेगा, इस्लाम के लोग ही आगे बढ़ेंगे, इस्लाम के हित में ही पूरी दुनिया दुनिया का हित है।

अपने धर्म की अंधप्रशंसा से मुक्त होकर ही अपने धर्म की सेवा की जा सकती है। अगर सच में इस्लाम से अगर प्यार करते हैं तो उसमें सुधारों के लिए खड़े होइए, यही रसूल की सच्ची राह है, यही नेक राह है।

मुकेश पाण्डेय

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