प्रशांत महासागर तथा अटलांटिक महासागर के पश्चात हिन्द महासागर विश्व का तीसरा विशाल समुद्र है। यही एकमात्र महासागर है जो विश्व में किसी तटीय देश के नाम से जाना जाता है। इसका क्षेत्रफल 75 मिलियन वर्ग किलोमीटर है। इसके तट पर अफ्रीका तथा एशिया के लगभग दो दर्जन स्वतंत्र राज्य भी स्थित हैं। इसके अलावा अनेक टापू तथा टापू समूह भी हैं। भारत सहित इन सब देशों की जनसंख्या कुल मिलाकर विश्व की एक तिहाई से भी अधिक है। विश्व का लगभग 10 प्रतिशत अन्तरराष्ट्रीय व्यापार इसी मार्ग से होता है। अत: यह समुद्र विशेषत: भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भारत का समुद्र मार्ग जो अन्तरराष्ट्रीय समुद्रीय नियमों के अन्र्तगत आता है, 5500 किलोमीटर से अधिक है। यह सत्य है कि जब तक हिन्द महासागर पर भारत का नियंत्रण रहा, कोई भी विदेशी शक्ति दक्षिण की ओर से भारत में न घुस सकी। वास्कोडिगामा पहला व्यक्ति था जो दक्षिण अफ्रीका का लम्बा चक्कर लगाकर भारत के कालीकट तक पहुंच पाया था। उसने 1503 ई. में कोचीन पर कब्जा कर लिया। यद्यपि कोचीन के जमोरिन शासक सौ साल तक तटवर्ती समुद्र पर अपने नियंत्रण के लिए प्रयास करते रहे। पुर्तगालियों के साथ डच, ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी साƒााज्यों ने भी इस क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न किया।

भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो जाने पर उसने 19वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में अपनी शक्ति मजबूत कर ली। इंग्लैण्ड ने हिन्द महासागर के चारों ओर नाकेबन्दी की तथा इसे एक “ब्रिटिश झील” के रूप में उपयोग किया। अटलांटिक से आने वाले जलयानों ने दक्षिण अफ्रीका के सुदुर किनारे सिमोन्स टाउन को प्रशान्त महासागर से आने वाले जलयानों के लिए सिंगापुर तथा लाल सागर की ओर से आने वाले जलयानों के लिए अदन को अपना नौसैनिक अड्डा बनाया। इसके अलावा भारत आने के लिए त्रिकोनमाली या सिलोन को तथा पूर्व से आने वाले के लिए आस्ट्रेलियन कोस्ट को केन्द्र बनाया। अंग्रेजो का यह पूरा प्रयत्न रहा कि हिन्द महासागर में किसी भी अन्य प्रतियोगी को आने का अवसर न मिले।

द्वितीय विश्वयुद्ध तथा 1947 ई में भारत की स्वतंत्रता के पश्चात, ब्रिटिश साƒााज्य के पतन से अमरीका ने इस क्षेत्र में अपने पांव फैलाने शुरू किए। 1948 ई. में बहरीन द्वीपों में एक छोटा-सा नौसैनिक अड्डा था, जिसका उद्देश्य मध्य पूर्व में अपना प्रभाव रखना तथा विशाल तेल भण्डार पर अपना कब्जा बनाए रखना था। विशेषकर 1960 तक अमरीका ने इसमें अपनी रुचि नहीं दिखलाई। नवम्बर, 1965 ई. में हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग के कई द्वीपों को मिलाकर ब्रिटिश इंडिया ओशियन टेरीटरी (बिओट) की स्थापना की। 1965 ई. तक चागौस द्वीपसमूह का शासन मॉरिशस के अन्र्तगत रहा। पर ब्रिटेन ने मॉरिशस को आजादी देने के बाद भी चागौस द्वीप समूह और पश्चिम हिन्द महासागर के दूसरे द्वीपों को अपने कब्जे में रखा।

दीर्घकालीन योजना के अन्तर्गत दिसम्बर, 1966 ई. में इंग्लैण्ड ने चागौस द्वीप समूह में दिएगो गार्सिया द्वीप सैनिक गतिविधियों के लिए अगले 50 वर्षों के लिए अमरीका को सौंप दिया। यह द्वीप 25 किलोमीटर लम्बा व 5 किलोमीटर चौड़ा है। यहां के तीन किलोमीटर लम्बी हवाई पट्टी से कोई भी वायुयान भारत तक एक घण्टे में पहुंच सकता है। अत: इस क्षेत्र में शीघ्र ही इंग्लैण्ड का प्रभाव घटता गया तथा अमरीका ने उसका स्थान ले लिया।

स्वाभाविक रूप से हिन्द महासागर के तटवर्ती राज्य इससे सावधान हुए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 16 दिसम्बर, 1971 को श्रीलंका का एक प्रस्ताव पारित कर हिन्द महासागर को शांति क्षेत्र घोषित कर दिया। सब राष्ट्रों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान दिया। विपक्ष में एक भी नहीं था। भारत व चीन ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। सोवियत संघ, अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, मलेशिया, सिंगापुर व थाईलैण्ड सहित 55 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया। इसी बीच अमरीका की विस्तारवादी नीति तेजी से बढ़ी। 1971 ई. में भारत-पाक युद्ध के समय भारत पर दबाव बनाने के लिए अमरीका का प्रशांत महासागर से सातवां बेड़ा चलकर बंगाल की खाड़ी के चटगांव में खड़ा रहा। अमरीकी अधिकारियों ने अनाप-शनाप वक्तव्य दिए। भारत में अमरीका के तत्कालीन राजदूत मोहनीय ने कहा, “हिन्द महासागर में अमरीकी हित भारत से भी अधिक हैं।” प्रश्न यह भी उठा कि इसका नाम हिन्द महासागर क्यों है? सुझाव आया कि इसे मेडागास्कर समुद्र कहा जाए। कुछ ने बाद में इण्डोनेशिया सागर का भी सुझाव दिया।

अब अमरीका ने दिएगो गार्सिया के विकास के लिए 9 मिलियन डालर खर्च करने की योजना बनाई तब चहुंओर विरोध के बाद भी अमरीका ने इसकी चिन्ता नहीं की। भारत की राजनीतिक कमजोरी, पाकिस्तान की अस्थिरता, अफगानिस्तान में सोवियत संघ के षड्यंत्र तथा ईरान के शाहवंश की समाप्ति ने अमरीका को और अधिक मजबूत बनाया है।

इस सन्दर्भ में सोवियत यूनियन, फ्रांस, चीन तथा जापान ने कुछ प्रतिरोध अवश्य किया तथा अन्तराष्ट्रीय समुद्र में निगरानी के लिए कुछ जहाज छोड़े। भारत ने भी अपने पड़ोसी-श्रीलंका, बंगलादेश तथा मालद्वीप से कुछ संधियां कीं, परन्तु प्रत्येक संधि में कुछ गवांया, पाया नहीं। यह सर्वविदित है कि अमरीका की विस्तारवादी नीति का आधार हिन्द महासागर पर आर्थिक नियंत्रण रखना है। यह समूचा क्षेत्र खनिज सम्पदा व कच्चे माल को लाने का मुख्य मार्ग है। जापान, इटली, आस्ट्रेलिया, ब्रिट्रेन, जर्मनी की अधिकतर पूर्ति इसी मार्ग से होती है। अनेक कच्ची वस्तुएं यूरेनियम, थोरियम, कोयला, लोहा, तांबा, मैगनीज, पटसन, रबर का यह मुख्य क्षेत्र है।

रामसेतु, जो चीन की प्रसिद्ध दीवार तथा मिश्र के पिरामिड से हजारों साल पुराना है, की खुदाई आत्मघाती, प्रकृति विरोधी तथा सुरक्षा की दृष्टि से विनाशकारी होगी। आवश्यकता है कि हिन्द महासागर को पुन: व्यावहारिक रूप से शांति क्षेत्र बनाया जाए। भारत इस पर अपना अधिकार स्थापित करे तथा इस समुद्र से लगे तटीय देशों के साथ सामाजिक तथा सांस्कृतिक सम्बंधों को दृढ़ करे। भारत हिन्द महासागरीय समुदायों को संरक्षण दे तथा उनको नेतृत्व प्रदान करे।

मुकेश पाण्डेय

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