भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित संपूर्ण गांधी वाड्मय (खंड 89, पृष्ठ संख्या 215-217) में 16 सितंबर, 1947 को दिए गए महात्मा गांधी के संबोधन का एक अंश इस तरह है- ‘‘मुझसे कहा जाता है कि आप मुसलमानों के दोस्त हैं और हिंदुओं और सिखों के दुश्मन। यह सत्य है कि मैं मुसलमानों का दोस्त हूं, जैसा कि पारसियों और अन्य लोगों का हूं। ऐसा तो मैं 12 वर्ष की उम्र से ही हूं। लेकिन जो मुझे हिंदुओं और सिखों का दुश्मन कहते हैं, वे मुझे पहचानते नहीं। मैं किसी का भी दुश्मन नहीं हो सकता, हिंदुओं और सिखों का तो बिल्कुल नहीं।’’ गौर करने वाली बात यह है कि गांधी जी ने यह बात दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सभा में दिए भाषण में कही थी। गांधी जी के उपरोक्त वक्तव्य से यह बात साफ हो जाती है कि 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से देश को स्वतंत्रता मिलने तक संघ की छवि सोच-समझकर मुस्लिम विरोधी बना दी गई थी। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनैतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर संघ को सिर्फ हिंदू हित रक्षक के तौर पर देखा जा रहा था। अन्यथा गांधी जी हिंदू-मुसलमानों से जुड़ा इतना स्पष्ट बयान संघ के स्वयंसेवकों के सामने नहीं देते।
दूसरी बात जो गांधी जी के भाषण में झलकती है, वह यह है कि उन्हें ऐसा लगता था कि संघ से जुड़े लोग उन्हें हिंदू विरोधी और मुसलमानों का ज्यादा हितैषी समझते हैं। इसी भाषण में गांधी जी ने कहा-‘‘मैं यह दावा करता हूं कि मैं सनातनी हिंदू हूं। मैं सनातन का मूल अर्थ लेता हूं। हिंदू शब्द का सही-सही मूल क्या है, यह कोई नहीं जानता। यह नाम हमें दूसरों ने दिया और हमने उसे अपने स्वभाव के अनुसार अपना लिया। हिंदू धर्म ने दुनिया के सभी धर्मों की अच्छी बातें अपना ली हैं और इसलिए इस अर्थ में यह कोई वर्जनशील धर्म नहीं है। इसलिए इसका इस्लाम धर्म या उसके अनुयायियों के साथ ऐसा कोई झगड़ा नहीं हो सकता, जैसा कि आज दुर्भाग्यवश हो रहा है।’’ गांधी जी के उपरोक्त वक्तव्य को समझते हुए सबसे बड़ा सवाल यह है कि उस ‘दुर्भाग्य’ का असली रचयिता कौन था? संघ और महात्मा गांधी के संबंध में इस तरह की अवधारणाएं समाज में किसने फैलाई थीं? देश के आजाद होने के एक महीने बाद ही स्वयं गांधीजी ने संघ कार्यकर्ताओं के सामने अपने अभूतपूर्व और ऐतिहासिक भाषण में यह साफ करना उचित क्यों समझा था कि वे पूरे भारतीय समाज यानी समुदायों से परे हर देशवासी के प्रति प्रेमभाव रखते हैं?
गांधी के हत्यारे कौन?
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी, 1948 को उनकी प्रार्थना सभा में हुई। इसके ठीक दस दिन पहले 20 जनवरी, 1948 को भी उनकी प्रार्थना सभा में उनकी हत्या का एक प्रयास हुआ था।
गांधी हत्याकांड पर 10 फरवरी, 1949 को दिये गए अपने निर्णय में न्यायमूर्ति आत्मा चरण ने लिखा:
20 जनवरी, 1948 से 30 जनवरी, 1948 तक पुलिस द्वारा की गई जांच-पड़ताल की शिथिलता मुझे केन्द्र्रीय शासन के ध्यान में लानी है। दिनांक 20 जनवरी,1948 को मदनलाल के पकड़े जाने पर उसका विस्तृत वक्तव्य दिल्ली पुलिस ने प्राप्त कर लिया था। उधर डॉ. जे. सी. जैन द्वारा गृह मंत्री को दी गई सूचनाएं भी बम्बई पुलिस को 21 जनवरी,1948 को मिल चुकी थीं। इन दोनों बयानों को प्राप्त करने के पश्चात दिल्ली और बम्बई के पुलिस अधिकारी परस्पर मिल भी चुके थे। इतना सब होने पर भी इन दो बयानों का लाभ उठाने में पुलिस असमर्थ रही, यह अत्यन्त दुख की बात है। इस प्रकरण में यदि तनिक भी तत्परता दिखाई गई होती, तो यह दुखद घटना कदाचित टाली जा सकती थी। (मुद्रित अभिलेख खण्ड 3, पृष्ठ संख्या 109)
यहां यह बताना जरूरी है कि 20 जनवरी, 1948 की शाम दिल्ली के बिड़ला भवन में गांधी जी की प्रार्थना सभा में एक बम विस्फोट हुआ था। इसमें मदनलाल पाहवा को घटनास्थल पर ही पकड़ लिया गया था। इस बम विस्फोट में कोई भी घायल नहीं हुआ था, परन्तु सभा में भगदड़ मच गई थी। मदनलाल पाहवा पाकिस्तान से भाग कर आया हुआ एक शरणार्थी था। उसने अपनी बम विस्फोट करने की योजना के बारे में जनवरी 1948 में एक बार बातों-बातों में डॉ. जे.सी. जैन को भनक दी थी। इस पर डॉ. जैन ने प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री को सूचित कर दिया था। डॉ. जैन बम्बई के राम नारायण रुईया महाविद्यालय में प्राध्यापक थे।
अमेरिकी पत्रिका ‘हिस्ट्री टुडे’ (खंड 58, अंक1, 1 जनवरी, 2008) में रिचर्ड कवेंडिश ने अपने लेख में लिखा है कि गांधीजी की हत्या के बाद बिड़ला भवन में इतनी अव्यवस्था हो गई थी कि किसी डॉक्टर को बुलाने का प्रयास भी नहीं हुआ!
संघ का प्रभाव
यहां एक तथ्य और उल्लेखनीय है कि 1947 में महात्मा गांधी पहली बार संघ से रू-ब-रू नहीं हो रहे थे। उससे 13 साल पहले वे 25 दिसंबर, 1934 को भी महाराष्ट्र के वर्धा में संघ शिविर में गए थे और उन्होंने कहा भी कि दो बातों ने उनका ध्यान खींचा था। पहली तो यह कि संघ के शिविर में आए कार्यकर्ताओं ने आने-जाने, रहने-सहने, खाने-पीने की व्यवस्था अपने पैसों से ही की थी। दूसरी बात थी अनुशासन और वहां जाति-पंथ की भावना लेशमात्र भी नहीं होना। छुआछूत का कोई भाव नहीं था। इसका जिक्र खुद गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में हुई सभा में किया कि वे 1934 में संघ के लोगों में कड़े अनुशासन, सादगी के साथ ही छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुए थे। उल्लेखनीय है कि 1947 में संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करने वाले गांधी जी की मनोदशा क्या थी? क्या उनके विचार दक्षिण अफ्रीका में सफल होकर 1915 में भारत आए गांधी जी जैसे ही थे या फिर वे भारत विभाजन के लिए बनी राजनैतिक परिस्थितियों और 1947 से पहले के कुछ वर्षों के दौरान कांग्रेस के बड़े नेताओं के व्यवहार और उनके बीच उभरे महा-अंतर्विरोधों की बारीक समझ रखने वाले, भविष्य में संघ का उभार साफ तौर पर देखने वाले गांधी जी थे? दिल्ली में अपने भाषण में गांधी जी ने स्पष्ट तौर पर माना था-‘‘संघ एक सुसंगठित, अनुशासित संस्था है। उसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’’
हालांकि महादेव देसाई के निधन के बाद महात्मा गांधी के निजी सचिव बने प्यारेलाल ने अपनी किताब ‘महात्मा गांधी: द लास्ट फेज’ में लिखा है कि 12 सितंबर, 1947 को गांधी जी के साथ रहने वाले किसी व्यक्ति ने उनसे जिक्र किया कि संघ के लोगों ने हिंदुओं और सिखों के लिए वाह क्षेत्र (अब पाकिस्तान में) में शरणार्थी शिविर का बहुत अच्छा काम किया। तो गांधी जी ने कहा कि हिटलर और मुसोलिनी में भी यही कार्यक्षमता थी। अजीब बात यह है कि प्यारेलाल को संघ के समर्थन में बोलने वाले गांधी जी के सहयोगी का नाम तो याद नहीं रहा, लेकिन गांधी जी का पूरा वक्तव्य हू-ब-हू याद रहा। इस पुस्तक का पहला संस्करण नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अमदाबाद ने फरवरी, 1956 में प्रकाशित किया था यानी महात्मा की हत्या के आठ वर्ष बाद। आजादी से पहले 5 अगस्त, 1947 को गांधी जी भी वाह के शरणार्थी शिविर में गए थे। दूसरी अजीब बात यह है कि अगर गांधी जी संघ को फासीवादी संगठन मानते थे, तो वे चार दिन बाद ही यानी 16 सितंबर,1947 को संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करने क्यों पहुंचे? उनकी तारीफ की। उन्होंने 1934 में संघ के वर्धा शिविर की याद करते हुए साफ-साफ कहा कि ‘‘तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से यह मानता आया हूं कि जो भी संस्था सेवा और आत्मत्याग के आदर्श से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है…।’’
यह बात सही है कि 1925 में संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में कांग्रेस में बहुत सक्रिय रहे, कांग्रेस के पदाधिकारी भी रहे। यह बात भी ऐतिहासिक रूप से सही है कि कलकत्ता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान वे अनुशीलन समिति के निकट संपर्क में आए थे। अनुशीलन समिति हथियारबंद आंदोलन के पक्ष में थी। यह भी सही है कि 1910 से 1915 तक मेडिकल की डिग्री पूरी करने के दौरान और बाद में भी डॉ. हेडगेवार बंगाल और उत्तर भारत के सशस्त्र क्रांति के लिए उतावले युवाओं के बीच पुल की भूमिका में बने रहे। जिस तरह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज और दूसरे बहुत से क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई थी, उसी तरह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम बंगाल में सक्रिय अनुशीलन समिति और देश भर में दूसरे संगठनों से जुड़े क्रांतिकारियों यथा डॉ. मुंजे, डॉ. हेडगेवार और कांग्रेस के कई क्रांति समर्थक नेताओं ने अंग्रेजों की मदद न कर, उनके विरुद्ध हथियारबंद क्रांति का बिगुल फूंकने की 1917-18 में बहुत कोशिशें की थीं। लेकिन महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक और कई दूसरे बड़े नेताओं के आग्रह की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। तब मेडिकल कॉलेज छोड़े हेडगेवार को दो-तीन साल ही हुए थे। वे अपनी बात लेकर गांधी से मिले, तिलक से भी मिले। वैचारिक असहमतियों के बावजूद दोनों का पूरा सम्मान किया। महात्मा गांधी की हत्या के मामले में संघ की कभी कोई भूमिका नहीं रही, यह अनेक अवसरों पर साबित हो चुका है। खुद सरदार पटेल ने माना कि संघ का हाथ इसमें नहीं था। 19 जुलाई, 1949 को पटेल ने कहा कि वे खुद भी चाहते थे कि संघ से प्रतिबंध हट जाए। कुछ लोग मानते हैं कि असल में सरदार पटेल चाहते थे कि संघ का विलय कांग्रेस में करा दिया जाए, लेकिन संघ को लेकर नेहरू का रुख बेहद अव्यावहारिक और कटु था।
गांधी जी 25 दिसंबर, 1934 को महाराष्ट्र के वर्धा में संघ शिविर में गए थे। वहां दो बातों ने उनका ध्यान खींचा था। पहली तो यह कि संघ के शिविर में आए कार्यकर्ताओं ने आने-जाने, रहने-सहने, खाने-पीने की व्यवस्था अपने पैसों से ही की थी। दूसरी बात थी अनुशासन और वहां जाति-पंथ की भावना लेशमात्र भी नहीं होना। छुआछूत का कोई भाव नहीं था। इसका जिक्र खुद गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में हुई सभा में किया था
दोषी कौन?
1964 में जब गांधी हत्याकांड के दोषी सजा काट कर बरी हुए, तब स्वराज के प्रबल पैरोकार रहे लोकमान्य तिलक के प्रपौत्र गजानन विश्वनाथ केतकर ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि उन्हें गांधी जी की हत्या की साजिश की जानकारी थी। इस तरह के और भी बयान आए, तो कांग्रेस में घमासान मच गया। कांग्रेस की केंद्र सरकार ने गांधी हत्याकांड में संघ की भूमिका की जांच के लिए 22 मार्च, 1965 को पाठक कमीशन बनाया, लेकिन गोपाल स्वरूप पाठक की संवैधानिक पद पर नियुक्ति होने के बाद 21 नवंबर, 1966 को सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज जीवन लाल कपूर को कमीशन का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने तीन साल तक गहन जांच-पड़ताल की। 162 बैठकें हुर्इं, करीब 400 दस्तावेज जुटाए गए और 101 गवाहियां हुईं। दिल्ली, बंबई, नागपुर, पुणे, चंडीगढ़ और बड़ौदा तक जांच-पड़ताल चली। फिर भी इस बात का लेशमात्र सबूत नहीं मिला कि गांधी जी की हत्या में संघ का कोई हाथ था।
अन्य वजहों के अलावा कपूर कमीशन ने माना कि गांधी जी की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी नहीं थी। आयोग ने 20 जनवरी, 1948 को गांधी जी पर हुए हमले की जांच प्रक्रिया को भी सही नहीं माना। पटेल पर ये आरोप लगे कि गांधी जी सुरक्षा नहीं चाहते थे, लेकिन उनकी जान को खतरा तो था ही। ऐसे में सादी वर्दी में उन्हें बताए बिना सुरक्षा क्यों नहीं मुहैया कराई जा सकती थी? ये सारे ऐतिहासिक तथ्य कांग्रेस के राहुल गांधी भूल गए और संघ पर बापू की हत्या की साजिश रचने का बयान देकर मानहानि के मामले में फंस गए। असल में कांग्रेस ने या कहें कि नेहरू परिवार ने आजादी के बाद से ही संघ का प्रगति के पथ पर निरंतर बढ़ता हुआ भविष्य देख लिया था, यही वजह रही कि उसने गांधी जी की हत्या के मामले में संघ को घेरने का विमर्श लगातार खड़ा किया।
21 नवंबर, 1966 को सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज जीवन लाल कपूर को गांधी जी की हत्या की जांच करने वाले आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। तीन साल गहन जांच-पड़ताल हुई। 162 बैठकें हुर्इं, करीब 400 दस्तावेज जुटाए गए और 101 गवाहियां हुईं। दिल्ली, बंबई, नागपुर, पुणे, चंडीगढ़ और बड़ौदा तक जांच-पड़ताल चली। फिर भी इस बात का लेशमात्र सबूत नहीं मिला कि गांधी जी की हत्या में संघ का कोई हाथ था
यह सवाल बार-बार उठता है कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को मुख्य हथियार के तौर अपनाया गया था, तो फिर भारतीय युवकों को रक्तरंजित युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया गया? प्रथम विश्वयुद्ध के समय आठ लाख भारतीय सैनिक भर्ती किए गए थे। भारतीयों सैनिकों के साथ भेदभाव की बात गांधी जी से भी छुपी नहीं होगी। एक अंग्रेज सैनिक पर होने वाले खर्च पर कई भारतीय सैनिक रखे गए थे। वेतन और सुविधाएं बहुत कम थीं। फिर भी इस मामले में कांग्रेस के नेताओं ने अंग्रेजों के साथ असहयोग की नीति नहीं अपनाई। हां, युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों की वादा खिलाफी की वजह से आजादी का आंदोलन तेज हुआ, यह कहना सही होगा। लेकिन यह भी सही है कि आत्मबलिदान की हदें पार करने वाले भारतीय अगर भारत में ही अंग्रेजों से भिड़ गए होते, तो आजादी 1947 से काफी पहले मिल चुकी होती। पहले विश्व युद्ध में करीब 48 हजार भारतीय सैनिक शहीद हुए, 65 हजार के करीब घायल हुए थे। 5 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में हुए चौरीचौरा कांड में 22 सिपाहियों को जला दिए जाने के बाद देश भर में प्रचंड गति से चल रहे असहयोग आंदोलन को वापस लेने वाले गांधी जी प्रथम विश्व युद्ध में युवाओं का लहू बहाने के लिए किस मजबूरी में तैयार हुए थे? यह तो तय है कि 1 अगस्त, 1920 को शुरू हुआ असहयोग आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत को सर्वोपरि मानकर उस वक्त वापस लिया गया था, जब वह चरम पर था। प्रथम विश्व युद्ध के समय ही सही रणनीति बनती, तो अंग्रेज 20 के दशक में ही टूट सकते थे, लेकिन आजादी मिलने में तीन दशक और लग गए।
आजादी से पहले और बाद में भी जवाहर लाल नेहरू समेत संघ के उभार से डरे कांग्रेसी नेता तमाम कान भरने के बावजूद गांधी जी के मन में यह बात पूरी तरह कभी नहीं बैठा पाए कि संघ मुस्लिम समाज का विरोधी है। जानकार मानते हैं कि नेहरू संघ विरोधी इसलिए थे, क्योंकि उस समय संघ विकल्प बनकर उन्हें कड़ी चुनौती देता हुआ लगता था
एक और महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख आवश्यक है। आजादी के बाद देश में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क रहे थे। विभाजन के लिए अदला-बदली के दौरान पाकिस्तान में हुए अत्याचार की प्रतिक्रियास्वरूप हिंसा भारत में भी हो रही थी। बंटवारे की प्रक्रिया में खून-खराबे ने उन हिंदू-मुसलमानों के बीच भी नफरत की तात्कालिक प्रतिक्रियावादी दीवार खड़ी कर दी थी, जो सैकड़ों वर्षों से घुले-मिले थे। उस समय उप-प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री सरदार पटेल ने लखनऊ मेंं 6 जनवरी, 1948 को मुस्लिम समुदाय की सभा में सवाल उठाया था कि ‘कश्मीर में पाकिस्तानी हमले की निंदा क्यों नहीं की गई? आप दो नावों पर सवार नहीं रह सकते। किसी एक को चुनना होगा। जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे जाएं और शांति से रहें।’ महात्मा गांधी चाहते थे कि ‘दुर्भाग्यवश’ बन रहे पाकिस्तान में मुसलमान हिंदू और सिखों से रहने की जिद करें और भारत में हिंदू दरियादिली से मुसलमानों को रहने दें। यही वजह थी कि भारत में एक राष्ट्रीय भाषा हिंदी के प्रबल पक्षधर गांधी जी उसके लिए देवनागरी और उर्दू, दोनों लिपियों को आधिकारिक बनाने की हिमायत कर रहे थे। बहरहाल, मार-काट और दंगों से दुखी होकर महात्मा गांधी 13 जनवरी, 1948 को शांति की कामना में उपवास पर बैठ गए। पांच-छह दिनों में उनकी सेहत बिगड़ गई। देश में शांति के पक्षधर संगठनों के नेताओं को उनकी चिंता हुई और 18 जनवरी को देश के जिन 100 संगठनों ने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए घोषणा पत्र पर दस्तखत किए, उनमें संघ भी शामिल था। गांधी जी ने उसी दिन ‘हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सद्भावना’ के लिए तारीफ भी की थी।
संघ से डरी कांग्रेस
आजादी से पहले और बाद में भी जवाहर लाल नेहरू समेत संघ के उभार से डरे कांग्रेसी नेता तमाम कान भरने के बावजूद गांधी जी के मन में यह बात पूरी तरह कभी नहीं बैठा पाए कि संघ मुस्लिम समाज का विरोधी है। जानकार मानते हैं कि नेहरू संघ विरोधी इसलिए थे, क्योंकि उस समय संघ विकल्प बनकर उन्हें कड़ी चुनौती देता हुआ लगता था। इतिहास गवाह है कि नेहरू जी के प्रति गांधी जी विशेष लगाव रखते थे। लेकिन नेहरू भी उन्हें संघ की छवि को लेकर प्रभावित नहीं कर पाए। स्वतंत्रता के चार महीने बाद 15 नवंबर, 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में गांधीजी ने कहा- ‘‘मैं आरएसएस के बारे में बहुत सी बातें सुनता हूं। मैंने ऐसा भी सुना है कि इस सारी शरारत के पीछे संघ है। …हिंदू धर्म की रक्षा रक्तपात और हत्याओं से नहीं हो सकती। …वरना एक दिन आएगा, जब आप अपनी उस गलती पर पछताएंगे। जिसके कारण यह सुंदर पुरस्कार (स्वतंत्रता) आपके हाथ से निकल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि ऐसा दिन कभी नहीं आएगा।’’ गांधी जी वास्तव में दूरदर्शी थे। उनकी मनोकामना पूरी हुई। संघ के ही आचरण की वजह से ऐसा दिन कभी नहीं आया। बल्कि वह दिन आया, जब अपने ही चक्रव्यूह में फंसकर कांग्रेस और मौजूदा दौर की सभी क्षेत्रीय पार्टियां अपने आचरणों की वजह से आईना देख रही हैं और केंद्र में भारी-भरकम बहुमत वाली ऐसी सरकार है जिसके प्रधानमंत्री संघ के संस्कारों में पगे हैं।
जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति गढ़े गए विमर्श कि वह मुस्लिम विरोधी है, का प्रश्न है, तो ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ नाम की किताब में इस बारे में साफ राय रखी गई है। विचार विनिमय प्रकाशन से इस किताब का चौथा संस्करण 2017 में प्रकाशित हुआ है। किताब में इस सवाल का जवाब दिया गया है कि क्या संघ में मुसलमान और ईसाई युवकों को प्रवेश मिल सकता है? जवाब में लिखा है-‘‘भारत में रहने वाला मुस्लिम या ईसाई भारत के बाहर से नहीं आया है। वे सब यहीं के हैं। हमारे सबके पुरखे एक ही हैं। किसी कारण से मजहब बदलने से जीवन दृष्टि नहीं बदलती। इसलिए उन सभी की जीवन दृष्टि भारत की यानी हिंदू की ही है। हिंदू, इस नाते वे संघ में आ सकते हैं, आ रहे हैं और जिम्मेदारी लेकर काम भी कर रहे हैं। उनके साथ मजहब के आधार पर कोई भेदभाव या कोई स्पेशल ट्रीटमेंट उनको नहीं मिलता है। सभी के साथ हिंदू, इस नाते वे सभी कार्यक्रमों में सहभागी होते हैं।’’
संघ और मुस्लिम विषय को लेकर इससे ज्यादा स्पष्ट विचार और क्या हो सकते हैं? संघ विचार से स्वप्रेरित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से आज हजारों युवा मुस्लिम जुड़ रहे हैं। इस संगठन ने 2012 में संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग के समर्थन में मुस्लिम समुदाय के सात लाख लोगों के हस्ताक्षरों के साथ राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा था। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच अपने समाज को निरंतर प्रगतिशील बनाने में जुटा है। मंच के कार्यक्रमों से हजारों मुस्लिम युवतियां और प्रबुद्ध महिलाएं भी जुड़ी हैं। रक्षा बंधन पर मुस्लिम बहनें हिंदू भाइयों को राखी बांधती हैं।
जब गांधी जी की हत्या की गई वे 79 वर्ष के थे। अगर ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण वारदात नहीं हुई होती और महात्मा शतायु हुए होते, तो आयु के उत्तरार्ध में भी संघ के बारे में उनके विचार बेहद सकारात्मक ही रहे होते, इसमें कोई शक नहीं है। संघ पर पहला प्रतिबंध तो नेहरू सरकार ने गांधी जी की हत्या के बाद ही लगाया था, लेकिन विरोध में कोई सबूत नहीं मिलने पर प्रतिबंध बिना शर्त वापस लेना पड़ा था। बाद में भी दो बार और प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन दोनों बार वापस लेना पड़ा। ऐसा इसलिए ही हुआ, क्योंकि व्यक्तिगत दुराग्रहों की वजह से सत्य को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। खुशबू को तानाशाह मुट्ठियों में कैद कर नहीं रखा जा सकता, वह बिखर कर ही रहती है।