देवबंद की बात को सच माना जाए या सऊदी अरब सरकार के एक जिम्मेदार और सरकारी रूप से अधिकृत व्यक्ति शेख सालेह अल फौजान के उस वक्तव्य को, जो इन दिनों सारी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। सऊदी सरकार अथवा वहाबी पंथ के किसी भी विद्वान ने न तो इसे नकारा है और न ही उसका खण्डन किया है। शेख सालेह अल फौजान का कहना है कि गुलामी इस्लाम का अभिन्न अंग है। इस्लाम गुलामी में विश्वास रखता है। उसका कोई कितना ही विरोध करे, हम बिना गुलामी के इस्लाम को पूर्ण नहीं मानते। इससे भी दो कदम आगे बढ़कर उन्होंने यह कहा कि जिहाद उस समय तक रहेगा जब तक इस्लाम का अस्तित्व है। गुलामी और जिहाद के बारे में वर्तमान दुनिया के कुछ भी विचार हो सकते हैं लेकिन इस्लाम की परिभाषा इन दोनों के बिना अधूरी है। बिना गुलामी के जिहाद सम्भव नहीं है। शेख सालेह सऊदी सरकार में पाठ्य पुस्तक तैयार करने वाली संस्था के अध्यक्ष हैं। यह पुस्तकें केवल सऊदी अरब में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी पढ़ाई जाती हैं। अमरीका में जितने भी इस्लामी मदरसे हैं उनमें भी इन पुस्तकों को स्थानीय मदरसों के संचालक मान्यता देते हैं और पढ़ाते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि जहां भी वहाबी विचारधारा के मदरसे हैं उनमें यह पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं।
शेख सालेह की बहुचर्चित पुस्तक का नाम है “अल तोहीद मोनाथीजम”। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने वहाबियत के विरुद्ध लिखने वाले हसल अल मालिकी की तीव्र निंदा की है। पिछले दिनों सऊदी सरकार ने अपने यहां शिक्षा में जो परिवर्तन और सुधारवादी रुख अपनाया है उसकी भी उन्होंने आलोचना की है। उन्होंने सऊदी सरकार को चेतावनी दी कि वह ऐसा न करे वरना सऊदी अरब, जिस पर इस्लाम के प्रचार-प्रसार और सुरक्षा की जिम्मेदारी है, का ढांचा चरमरा जाएगा। शेख सालेह का मत है कि कुछ सुधारवादी यह कहते हैं कि इस्लाम गुलामी का पक्षधर नहीं है, यह सोच और यह व्याख्या इस्लामी आस्था के विरुद्ध है। यदि आप गुलामी का विरोध करेंगे तो फिर जिहाद नहीं कर सकेंगे। आप इस्लाम को मानते हैं तो आपको गुलामी को जायज और इस्लामी दृष्टिकोण से सही मानना होगा। अल सालेह सऊदी अरब के पिं्रस मिताइब विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। उक्त रपट स्वतंत्र सऊदी इनफारमेशन एजेंसी ने जारी की है। उल्लेखनीय है कि 1960 तक सऊदी अरब में गुलामी प्रथा जारी थी। वहां गुलामों और लड़कियों की खरीद-फरोख्त के बाजार थे। गुलामी की प्रथा मुस्लिम पसर्नल ला का हिस्सा है। दुनिया के वर्तमान दबाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था का बोलबाला होने के कारण गुलामी प्रथा को फिर से शुरू करने की मांग आम मुसलमान नहीं करते हैं।
वहाबी पंथ, सऊदी सरकार और शेख सोलह अल फौजान की विचारधारा एक ओर है जबकि देवबंद के फतवे से भारत में निकला सुर ठीक इसके विपरीत बात कहता है। दोनों में सच्चा और निष्ठावान कौन है, यह खोज का विषय है? देवबंद तो सऊदी की बगल का बच्चा है इसलिए वह अपने “आका” के विरुद्ध कोई बात कैसे कहेगा? लेकिन भारत के बहुसंख्यक समाज को समझाने और दुनिया में देवबंद की छवि को निखारने के लिए उसने अपनी भाषा सम्भवत: बदल ली है। 13 दिसम्बर, 07 को सहारनपुर से जारी रपट के अनुसार देवबंद दारूल उलूम (विश्वविद्यालय) ने हाल ही में एक फतवा जारी करते हुए कहा कि आतंकवाद की तुलना जिहाद से नहीं की जा सकती। फतवे में कहा गया है कि इस्लाम ने युद्ध के दौरान भी प्रार्थना स्थलों, निर्दोषों, अस्पतालों और शिक्षा केन्द्रों को निशाना बनाने की नाजायज बताया है। फतवे के अनुसार कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं। उक्त फतवा प्रसिद्ध संवाद लेखक जावेद अख्तर के मांगने पर मुफ्ती मौलाना फजलुर्रेहमान उस्मानी ने दिया है। उन्होंने कहा कि जिहाद का उद्देश्य बुराई के विरुद्ध युद्ध करना है जबकि आतंकवादियों का उद्देश्य बेगुनाहों को कत्ल करना है। यह दोनों एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। आतंकवाद इंसानियत के विरुद्ध सबसे घृणास्पद अपराध है।
सेकुलर डेमोक्रेसी नामक संगठन चलाने वाले जावेद अख्तर ने दारुल उलूम से पूछा था कि देश की वर्तमान स्थिति को जिहाद कहा जाए या आतंकवाद? मौलाना उस्मानी का कहना था कि जिहाद अंतिम हथियार है, इसमें तनिक भी लालच का स्थान नहीं होता। जिहाद करने वाला अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। देवबंद के इस फतवे का चारों ओर स्वागत हो रहा है, ऐसा मौलानाओं एवं उर्दू अखबारों का कहना है। लेकिन विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल से जब इस बारे में पूछा गया तो उनका सवाल था कि क्या यही भावना देवबंद के पाठ्यक्रम एवं दिनचर्या में शामिल है? जब हर ओर तालिबान का जोर बढ़ रहा है, उसकी विचारधारा से सारा देश भयभीत है, तब जिहाद और आतंकवाद शब्दों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ता है। मजहबी शब्दावली कुछ भी उपयोग की जाए लेकिन असलियत यह है कि यह केवल और केवल आतंकवाद है।
सच्चाई यह है कि स्वयं मुस्लिम भी जानते हैं कि दोनों शब्दों के बीच कोई अंतर नहीं रह गया है। यदि वास्तव में ऐसा है तो जिहादियों द्वारा बनाए गए अल जिहाद, जैशे मोहम्मद और लश्करे तोयबा जैसे सैकड़ों आतंकवादी संगठन, जो इस्लामी भावना को दर्शाते हैं, इसका विरोध क्यों नहीं करते? कश्मीर हो या फिर भारत का और कोई स्थान, या फिर दुनियाभर में, हर जगह उन्होंने इस्लाम के नाम का ही उपयोग किया है। जिस जिहाद को पवित्र बतलाया जा रहा है क्या उसे राजनीतिक आधार बनाकर मुगल बादशाहों ने अत्याचार नहीं किए? जबरन धर्म को स्वीकार करवाना कौन-सा इस्लामी सिद्धान्त है? बादशाहों और सुल्तानों ने इस्लाम के नाम पर ही दूसरे देशों पर चढ़ाई की और लूट के माल को माले गनीमत की संज्ञा दी। यही नहीं, जिसने अपने सिद्धान्तों के बलबूते पर इस्लाम को स्वीकार नहीं किया उसे इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह उनको जजिया (टैक्स) दे। इतिहास कुछ भी कहे लेकिन क्या कोई समझदार इंसान इसे जिहाद की संज्ञा देगा? वह भी तो ऐसा ही था जैसा कि आज लश्करे तोयबा और जैसे मोहम्मद वाले करते हैं। उस आतंक और आज के आतंक में कोई अंतर नहीं है। इसलिए फतवा देने से कुछ भी नहीं होता, जब तक नीयत और कर्म न्यायिक नहीं होंगे, उसे जिहाद नहीं आतंकवाद ही कहा जाएगा।