इस लेख में देश के कुछ उन रत्नों की चर्चा की जा रही है, जिनको जन-सामान्य ने स्वयं रत्न मानकर विभिन्न उपाधियों से विभूषित किया। -सं.
किसी भी देश के जन-समाज द्वारा राष्ट्रीय नेताओं को दी गई उपाधियां, उन जननेताओं के व्यक्तित्व, उनकी गरिमा, उनके कार्यों, गुणों तथा उनके व्यापक प्रभाव का परिचायक होती हैं।
आधुनिक भारत के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में पहला स्थान बालगंगाधर तिलक (1856-1920) का आता है। वे 20वीं शताब्दी के प्रथम दो दशक तक भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के एकमात्र सर्वोच्च नेता रहे। उनके देशव्यापी दौरों, गणेश तथा शिवाजी उत्सवों की देशव्यापी रचनाओं पर तथा “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” जैसे साहसपूर्ण राष्ट्रीय उद्घोष ने उन्हें भारत के राष्ट्र जीवन में जननेता के रूप में प्रथम स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। रूस के प्रसिद्ध क्रांतिकारी लेनिन ने श्री बालगंगाधर तिलक को भारत में पहली श्रमिक हड़ताल का श्रेय देते हुए उन्हें “भारत का प्रथम जननेता” कहा था। इसी भांति लन्दन टाइम्स के संवाददाता सर वेलन्टा
भारत के राष्ट्रीय नेताओं में गांधी जी (1869-1948) का स्थान अद्वितीय है। देश के सार्वजनिक जीवन में उनका सर्वाधिक तथा विस्तृत योगदान रहा। दो-तीन वर्ष भारत की राजनीति को समझने के पश्चात् वे सक्रिय रूप से 1919 ई. में राजनीति में आये। वे गुजराती समाज में “बापू” के नाम से प्रसिद्ध हुए, तो भारतीय जनमानस में “महात्मा” के रूप में जाने गये। इसका सर्वप्रथम प्रयोग महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके व्यक्तित्व को देखकर “महान आत्मा” के रूप में किया था। (देखें द काल आफ टÜथ, पृ. 48, 51)। इसी आधार पर प्रसिद्ध लेखक तेन्दुलकर ने गांधी जी का विस्तृत जीवन आठ भागों में “महात्मा” नाम से प्रकाशित करवाया।
गांधी जी को एक और उपाधि “राष्ट्रपिता” भी दी गई। इस शब्द का सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप से श्रीमती सरोजनी नायडू ने 28 अप्रैल, 1947 को नई दिल्ली में आयोजित एशियन रिलेशन्स कांफ्रेंस की सभा में प्रयुक्त किया। गांधी जी इस कांफ्रेंस की अध्यक्षता करने वाले थे और जैसे ही वे मंच की ओर तेजी से बढ़े, नायडू ने मंच पर लाउडस्पीकर से कहा “फादर आफ द नेशन आ रहे हैं।” यह सत्य है कि इससे पूर्व 6 जुलाई, 1944 को यंगून (पहले रंगून) से भूमिगत रेडियो स्टेशन से प्रसारित, बोस ने अपने संदेश में गांधी जी को “राष्ट्रपिता” कहा था। परन्तु गांधी जी की यह उपाधि जन-भावना का भाग नहीं बनी। सर्वप्रथम विरोध गांधी जी के पुत्र देवदास ने किया (एम मथाई, रेमीनेन्शेन्ण आफ द नेहरू ऐज, 1978, पृ.36) सामान्यत: भारतीय समाज ने राष्ट्र को सर्वदा माता के रूप में ही माना है। अत: उपरोक्त उपाधि से पेचीदगी अधिक बढ़ी तथा यह उपाधि जन समाज में विख्यात न हो सकी।
भारत के राष्ट्रीय नेताओं में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान सुभाषचन्द्र बोस (1897-1945?) का है। वे दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रपति (उन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष के लिए यह भ्रामक शब्द प्रयुक्त होता था) रहे थे। दूसरी बार वे गांधी जी के विरोध के पश्चात् भी चुने गये थे। वे जनवरी 1941 ई. में भारत से चले गये थे। 90 दिन तक समुद्र में पनडुब्बी द्वारा जर्मनी पहुंचना, विश्व के इतिहास में उनके अद्भुत साहस, विश्वास तथा पराक्रम की जबर्दस्त मिसाल थी। जर्मनी के हिटलर ने सुभाष को फ्यूहर्र आफ भारत कहा था। (देखें बालशास्त्री हरदास की पुस्तक “नाईनटी ईयर्स आफ आरर्मड स्ट्रगल) तत्कालीन जर्मनी में भारतीयों ने इसको हिन्दी में “नेता जी” कहा तभी से सुभाष की यह उपाधि सम्पूर्ण भारत में अत्यन्त लोकप्रिय हो गई।
सरदार बल्लभ भाई पटेल (1875-1950) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से हुए। सामान्य एक कृषक परिवार में पैदा हुए, पर संगठन कला में वे अद्वितीय थे। सर्वप्रथम उन्होंने बारदोली में किसानों पर कर वृद्धि के विरुद्ध संघर्ष का सफल नेतृत्व किया था। तभी उन्हें “सरदार” की उपाधि दी गई थी जो शीघ्र ही विख्यात हो गई थी। यद्यपि देश की स्वतंत्रता के पश्चात् वे बहुत कम समय जीवित रहे परन्तु उन्होंने सम्पूर्ण देश की सैकड़ों रियासतों के विलीनीकरण का अद्भुत कार्य किया। अत: इसी संगठन कौशल्य के कारण उन्हें “लौह पुरुष” की उपाधि दी गई। उनकी तुलना जर्मनी के पिं्रस बिस्मार्क से की गई।
उपरोक्त कुछ उदाहरणों के अलावा देश में ऐसे अनेक नेता हुए जिनके गुणों तथा कर्मों के आधार पर जनमानस ने उन्हें विविध उपाधियां दीं। जैसे लाला लाजपत राय को “शेरे पंजाब, मदनमोहन मालवीय को “महामना”, बंगाल के नेता चितरंजनदास को “देशबन्धु”, राजसी परिवार में सन्तों की भांति रहने वाले पुरुषोत्तम दास टण्डन को “राजर्षि”, अब्दुर गफ्फार खां को “सीमान्त गांधी” आदि अनेक उपाधियां दी गईं। इसी भांति वर्तमान काल में जयप्रकाश नारायण को “लोकनायक” कहकर पुकारा गया। देश के अनेक क्रांतिकारियों को भी भारतीय जन समाज ने भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। सरदार भगत सिंह को शहीदे आजम का सर्वोच्च सम्मान दिया गया। इसी भांति सावरकर को “वीर” कहकर सम्बोधित किया गया। अत: उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्प्ष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय नेता के लिए सर्वोच्च उपाधि वही है जो जनसमान ने उसे दी होगी। उपरोक्त उपाधियां किसी भी सरकारी पुरस्कार अथवा उपाधि से हजारों गुणा कीमती तथा बहुमूल्य है। क्या इसी संदर्भ में वर्तमान भारतीय राजनीतिज्ञों का मूल्यांकन होगा?