वोटों के नाम पर भी ठगी हो सकती है! वैसे तो आमतौर पर ये माना जाता है कि नेता ही मासूम भोली-भाली जनता को ठगते हैं, मगर हर बार मामला ऐसा ही हो ये जरूरी नहीं है। ऐसा ही कुछ असम में भाजपा के साथ हुआ है।

वैसे तो भाजपा के आम वोटर वर्षों से ये बात जानते और समझते हैं, लेकिन ‘स्पीकिंग ट्रुथ टू पॉवर’ के इस दौर में भी भाजपा के कई छोटे नेता अपने शीर्ष नेतृत्व को ये बात नहीं बता पाते। ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे लगाती भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को शायद इसी लिए एक बार फिर से ठग लिया गया है!

ताजा मामला असम का है जहाँ के अल्पसंख्यक मोर्चे की सभी इकाइयों को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर दिया गया है। ये फैसला असम प्रदेश अध्यक्ष रंजीत दास ने लिया और एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर के असम में प्रदेश, जिला, मंडल और बूथ स्तर के अल्पसंख्यक मोर्चों को भंग कर दिया। उन्होंने इन मोर्चों को भंग करने का कारण भी स्पष्ट बताया है – “असम के अधिकांश मुसलमान बहुल बूथों पर जहाँ बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के 20 कार्यकर्ता हैं, वहाँ भी बीजेपी को सिंगल डिजिट में वोट नही मिला!”

यानी, हो क्या रहा था? हुआ यह है कि ‘सबका साथ सबका विकास’ की कलई खुल गई है। जिन जगहों पर व्यक्ति खुद वोटर हो, अक्सर वहीं उसे पोलिंग एजेंट बनाया जाता है।

जब बूथों के वोट की गिनती हुई तो पता चला कि जहाँ 20-20 अल्पसंख्यक पोलिंग एजेंट थे, वहाँ भी 10 से कम वोट भाजपा को मिले। यानी, जो पोलिंग एजेंट बना बैठा था, उसने खुद भी भाजपा को वोट नहीं दिया!

तो क्या इसका ये मतलब निकाला जाए कि मदरसों को दिए गए केंद्र सरकार के वजीफों, अल्पसंख्यकों के लिए यूपीएससी की तैयारी करवाने की ख़ास योजनाओं, ‘उस्ताद’ जैसी कारीगरों के लिए बनाई गई योजनाओं का कोई असर नहीं हुआ?

ये नतीजे संघ और उसकी कार्यप्रणाली पर भी एक बड़ा सवालिया निशान लगा देते हैं। ‘गोइठा में घी सुखाना’ तो एक प्रचलित ग्रामीण कहावत होती है। इसका मोटे तौर पर ये मतलब होता है कि गोबर के कंडों में घी डाल भी दो तो उसके जलने पर वैसी ही बू आएगी।

संभवतः संघ के इन्द्रेश कुमार जैसे सूरमा गोइठा में घी सुखाते रहे हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, जब ऐसी योजनाओं से ये खुद लाभ ले रहे थे उस समय भी संभवतः ये विरोधी पार्टियों को मतदान के लिए लोगों को प्रेरित करते रहे होंगे। जो इधर आ भी रहा होगा उसे भी बरगला कर कहीं और भेज दिया।

संघ के लिए शायद वो समय आ गया है जब ये सोचा कि मुस्लिम राष्ट्रिय संघ नाम का जो संगठन का हिस्सा वो 2002 से चलाए जा रहा है, उसकी कोई प्रासंगिकता है भी या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्द्रेश कुमार के प्रयासों का जमीनी स्तर पर कोई असर नहीं हो रहा?

संभवतः इस बात की जरुरत है कि पिछले करीब दो दशकों से चल रहे मुस्लिम राष्ट्रिय संघ के क्रियाकलापों पर एक बार और ध्यान दिया जाए। अपने विवादित बयानों के लिए ये संगठन हाल में भी सुर्खियाँ बटोर चुका है।

अगर असम के साथ ही हुए बंगाल चुनावों की बात की जाए तो ये साफ़ नजर आता है कि कम से कम 90 सीटें ऐसी हैं, जहाँ भाजपा से टीएमसी की जीत का अंतर बहुत मामूली था। साठ सीटें तो ऐसी थीं, जहाँ ये अंतर दो हजार मतों से भी कम का रहा।

अब यहाँ ध्यान जाता है कि बंगाल चुनावों के दौरान भी कुछ ऐसी तस्वीरें खूब चर्चित रहीं, जिनके जरिए कुछ ऐसा दर्शाया जा रहा था कि एक समुदाय विशेष का युवा वर्ग अपना मत बदल रहा है। इससे पहले भी जब तीन तलाक पर कानून बना था तो कहा गया था कि उसी दौर में हुए उत्तर प्रदेश चुनावों में खवातीनों ने जमकर भाजपा के लिए मतदान किया है।

असम के चुनावों के बाद ये स्पष्ट हो गया है कि ऐसे दावे बस शेखचिल्ली के ख्वाब थे जो या तो जमीन से कटे हुए नेताओं ने किये हैं या फिर धोखा देने के मकसद से कुछ लोगों ने फैलाए हैं। पैंतीस के करीब सीटों पर नोटा से कम का अंतर सच में भाजपा के लिए आँखें खोलकर देखने का भी एक मौका है। अब सवाल ये है कि क्या भाजपा का नेतृत्व ऐसे छलावों को पहचान पाएगा? या कहीं ऐसा तो नहीं कि उनका भी एक मशहूर शेर वाला हाल है?

“हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है”

  • मिर्ज़ा ग़ालिब
मुकेश पाण्डेय

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